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सम्यकरूपसे नयों के ज्ञानसे सम्यग्दर्शन और सम्यक्ज्ञान की प्राप्ति होती है । और याथातथ्य ज्ञान होने पर ही रागद्वेष की निवृति रूप चारित्र धारण करना सुगम हो जाता हैं। इसप्रकार रत्नत्रय की प्राप्ति का मूल कारण नय ज्ञान सिद्ध होता है ।
इस ग्रन्थमे भी नयके निश्चय और व्यवहार दोही भेद निरूपित किये है इन दोनोंका यथार्थं समन्वयात्मक ज्ञान न होने से निश्चय या व्यवहार रूप एकान्त दृष्टि होनेके कारण साधक की साधना अधूरी रहती हैं। पंडीतप्रवर आशाधरजी अनगार धर्मामृतमे इसका स्पष्टीकरण करते हुए लिखा हैं कि निश्चयसे निरपेक्ष व्यवहार नय का विषय असत् है अतः निश्चय निरपेक्ष व्यवहार का उपयोग करने पर स्वार्थका विनाश हो जाता हैं जैसे निश्चय के समान घी चावल आदिके विना व्यवहार के समान दाल शाक खानेवाला कभी स्वस्थ नही रह सकता है । वैसे ही निश्चयसे विमुख अभूतार्थ व्यवहार की भावना करनेवाला अपने मोक्ष सुख स्वार्थसे भ्रष्ट होता है कभी मोक्ष सुख प्राप्त नही कर सकता है ।' जैसे निश्चय शून्य व्यवहार व्यर्थ हैं । उसी प्रकार व्यवहार के विना निश्चय भी कार्यकारी नही है- जो साधक व्यवहारसे विमुख होकर निश्चय को करना चाहता है वह मूढ बीज, खेत पानी आदि के विना वृक्ष आदि फलों को उत्पन्न करना चाहता है । अर्थात् किसीको किसी कालमे व्यवहार नय भी तावत्काल प्रयोजनीय है । अभिप्राय यह जैसे मोक्षमार्गमे व्यवहार
१. अनगर धर्मामृत १ श्लोक ९९ २. अनगार धर्मामृत १ श्लोक १००
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