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________________ निश्चय का ज्ञान आवश्यक हैं वैसे अन्य नयों का भी ज्ञान आवश्यक हैं अतः मोक्ष मार्ग के किये नय ज्ञानपरमा आवश्यक हैं। ७) गुणोंकी व्यत्पत्ति इस अधिकारमें आचार्य देवसेनने व्याकरणके नियमके अनुसार भाव वाचक 'त्व' प्रत्यय लगाकर पथक पृथक् रूपसे गुणोंको व्युत्पत्ति की हैं। इस व्यत्पत्तिसे उस गुणका सही भावार्थ और प्रयोजन समझ में आ जाता है । जो द्रव्य के साथ त्रिकाल सदा रहते हैं उन्हे गुण कहते है । जो सदा एक के बाद एक क्रमसे उत्पाद-व्यय परिणमन करती रहती हैं वह पर्याय हैं । जो एक द्रव्य को अन्य द्रव्यसे पृथक करते है वे गुण है। प्रत्येक द्रव्यमें अपने सामान्य और विशेष गुण रहते हैं । सामान्य गुण तो सबद्रव्योंमें पमान रूपसे होते है किन्तु असाधारण (विशेष) गुणके द्वारा अपने द्रव्य को पृथक पहिचान होनेसे इसी पहिचानसे अन्य द्रव्यसे उसे पृथक किया जाता है। जैसे जीव चेतन गणके कारण अन्य द्रव्यसे पृथक है। इस कारण इसे विशेष गुण कहते हैं। अस्ति 'है' (सत्ता) के भावको अस्तित्व कहते हैं । जिसमें सामान्य विशेष गुण वसते हैं वह वस्तु हैं वस्तुके भाव को वस्तुत्व कहते हैं । अपने प्रदेश समूहों द्वारा जो पर्यायोंको प्राप्त करता हैं प्राप्त कर चुका हैं और प्राप्त करेगा वह द्रव्य हैं । द्रव्य के भावको द्रव्यत्व कहते है । प्रमेय (जेय) के भावको प्रमेयत्व कहते है प्रत्येक पदार्थ ज्ञानका विषय होनेसे प्रमेय हैं । अगुरु लघुगुण सूक्ष्म है, वचन अगोचर हैं उसके संबंध में कुछ कही नही जा सकता है जिनेन्द्र भगवान की आज्ञासेही सिद्ध हैं । अगुरुलघुके भावको अगुरु लघुत्व कहते है । आकाशका पुद्गल (१९) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001365
Book TitleAalappaddhati
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorBhuvnendrakumar Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1989
Total Pages168
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Nyay
File Size7 MB
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