________________
समय विवाक्षित हेतु की अपेक्षा निर्दोष प्रयोग नय कहा जाता है।' अथवा जो वस्तु को नाना स्वभावोसे गोणकर, एक स्वभाब मे स्थापित करता है वह नय है। इस प्रकार आगम से अनेक स्थलोंपर भिन्न प्रकार से नय के लक्षण प्ररूपित किये गय है। उन सब के लक्षणोंका अभिप्राय केवल एक ही है कि वस्तु के एक देश को यथार्थ ग्रहण करके वस्तु का सच्चा ज्ञान करा देना जिससे ज्ञाता मोक्षमार्ग मे तत्वज्ञान करते समय कही भटके नहीं।
नय के भेद- नय के मूलभूत निश्चय और व्यवहार ये दो भेद है। निश्चय के साधन हेतु द्रव्याथिक और पर्यायाथिक नय हैं । द्रव्यार्थिक, पर्यायार्थिक, नंगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजु सूत्र, शब्द, समभिरूढ और एवं भूत ये नौ नय है । जो नयो के समीप होते है वे उपनय है उसके तीन भेद है-सद्भूत व्यवहार, असद् भूत व्यवहार और उपचरितासद् भूत व्यवहार ।
द्रव्याथिक नय के कर्मोपाधि निरपेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिक नय उत्पाद व्यय गौण सत्ताग्राहक द्रव्याथिक नय, भेद कल्पना निरपेक्ष शुद्ध द्रव्याथिक नय आदि दश भेद है।
पर्यायाथिक नयके अनादि द्रव्य पर्यायार्थिक सादि नित्य पर्यायाथिक, अनित्य शुद्ध पर्यायार्थिक आदि छह भेद हैं। नैगम नय के भूत, भावि, वर्तमान नैगमनय ये तीन भेद है। संग्रह नय के सामान्य संग्रह नय और विशेष संग्रह नय ये दो भेद है।
१. धवला पु ८पृ. १६७ । २. आलाप पद्धति सूत्र १५० ।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org