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________________ नय भेदोंकी व्युत्पत्ति ( ११५ ) अभेदरूपतया वस्तु जातं संग्रहीतीति संग्रहः ॥ १९७ ॥ जो अभेद रुप से समस्त वस्तुओं का संग्रह करके ग्रहण करता है उसे संग्रह नय कहते है ॥ १९७ ॥ संग्रहेण गृहीतार्थस्य भेदरूपतया वस्तु येन व्यवन्हियत इति व्यवहारः ।। १९८ ॥ संग्रह नय के द्वारा गृहीत अर्थ का भेद रूप से व्यवहार करनेवाले नय को व्यवहार नय कहते है ॥ १९८॥ ऋजु प्राञ्जलं सूत्रयतीति ऋजुः सूत्रः ॥ १९९ ॥ जो सरल सीधा सूत्रपात करे अर्थात् वर्तमान पर्याय मात्र को जो ग्रहण करता हैं वह ऋजुसूत्र नय हैं ॥ १९९ ॥ शद्वात् व्याकरणात् प्रकृति प्रत्यय द्वारेण सिद्धः शद्वः शद्वयः ॥ २०० ॥ शव अर्थात् व्याकरण से प्रकृति प्रत्यय के द्वारा सिद्ध शद्ध को ( ग्रहण करनेवाले नय को) शद्व नय कहते है ॥ २०० ॥ परस्परेणाभिरूडः समभिरूढः । शद्व भेदोनास्ति यथा-शक्र इन्द्र पुरन्दर समभिरूडः ।। २०१ ॥ परस्पर में अभिरूढ को समभिरुढ कहते हैं, जैसे- शक्र, इन्द्र, पुरन्दर आदि शत्रु इंद्र के वाचक हैं इनमे शद्व भेद होकर भी अर्थ भेद नहीं है । अथवा एक शद्व अनेक जर्थ वाचक होकर भी रूढ अर्थको ही ग्रहण करना यह समभिरु नय हैं । जैसे गो www.jainelibrary.org Jain Education International भेदेऽप्यर्थ इत्यादयः For Private & Personal Use Only
SR No.001365
Book TitleAalappaddhati
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorBhuvnendrakumar Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1989
Total Pages168
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Nyay
File Size7 MB
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