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नय भेदोंकी व्युत्पत्ति
( ११३) परद्रव्यादि ग्रहणमर्थः प्रयोजनमस्येति परद्रव्यादि ग्राहकः ।। १८९ ।।
जिसका प्रयोजन परद्रव्य आदि को ग्रहण करना है वह परद्रव्यादि ग्राहक नय है ॥ १८९ ।।
परमभाव ग्रहणमर्थः प्रयोजनमस्पेति परमभाव ग्राहकः ॥ १९० ॥
जिसका प्रयोजन परम भाव को ही ग्रहण करना हैं वह परम भाव ग्राहक नय है ॥ १९० ॥
इति द्रव्याथिकस्य व्युत्पत्तिः । इस प्रकार द्रव्याथिक नय की व्युत्पत्ति हुई।
पर्यायाथिक नयको व्युत्पत्ति ॥ १६ ॥
पर्याय एवार्थः प्रयोजनमयोति पर्यायाथिकः ।। १९१ ॥
पर्याय ही जिसका अर्थ प्रयोजन है वह पर्यायाथिक नय है॥ १९१॥
अनादि नित्य पर्याप एवार्थः प्रयोजनमस्येत्यनादि नित्य पर्यायाथिकः ।। १९२ ॥
__ अनादि नित्य पर्याय ही जिसका अर्थ-प्रयोजन है वह अनादि नित्यपर्यायार्थिक नय हैं ॥ १९२।।
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