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( ११२)
आलाप पद्धती शुद्धद्रव्यमेवार्थः प्रयोजनमस्येति शुद्ध द्रव्यार्थिकः ॥ १८५॥
शुद्ध द्रव्य ही जिसका अर्थ प्रयोजन है वह शुद्ध द्रव्यार्थिक हैं ॥ १८५ ॥
अशुद्ध द्रव्यमेवार्थः प्रयोजनमस्येत्यशुद्ध द्रव्याथिकः ॥ १८६ ।।
अशद्ध द्रव्य ही जिसका अर्थ-प्रयोजन है वह अशुद्ध द्रव्याथिक नय है । १८६ ।।
सामान्यगुणादयोऽन्वयरुपेण द्रव्य द्रव्यमितिव्यवस्थापयतीति अन्वय द्रव्याथिकः ॥ १८७ ॥
सामान्य गुण आदि का द्रव्य द्रव्य इस प्रकार अन्वयरुपसे बोध करता है वह अन्वय द्रव्याथिक है अर्थात् अविच्छिन्न रुप से चले आये गुणों के प्रवाह में जो द्रव्य का बोध करता हैं उसे ही द्रव्य मानता हैं वह अन्वय द्रव्यार्थिक नय है ।। १८७ ॥
स्वद्रव्यादि गहणमर्थः प्रयोजनमस्येति स्वद्रव्यादि ग्राहकः ॥ १८८॥
स्वद्रव्य आदि ग्रहण करना जिसका अर्थ अर्थात् प्रयोजन है वह स्वद्रव्यादि ग्राहक नय हैं ॥ १८८ ।।
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