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________________ एकांत पक्ष दोष अधिकार ( ९७ ) तथा आत्मनः अनुपचरितपक्षेअपि परज्ञतादीनां विरोधः स्यात् ।। १४९ ।। तथा यदि आत्माको सर्वथा एकांतसे अनुपचरित-मुख्यरुपसे केवल आत्मज्ञ ही माना जावे तो वह संसार अवस्थामें जो इंद्रियोंके माध्यमसे उपचारसे ज्ञेयपदार्थोको जानता है, ऐसा जो प्रत्यक्ष प्रतीत हो रहा है उसमे विरोध आवेगा । अर्थात् आत्मा केवल अनुपचरित मुख्यरुपसे आत्मज्ञही माननेका प्रसंग आवेगा। इस प्रकार सर्वथा अनुपचरितपक्ष माननेपर आत्मा जो उपचारसे इंद्रियोंको माध्यमसे ज्ञेय परपदार्थों को जानता हैं, उसमें परज्ञता प्रत्यक्ष प्रतीत होती हैं उसमें विरोधका प्रसंग आयेगा। निश्चयसे अनपचरित नयसे आत्मा आत्मज्ञ है, व्यवहार नयसे उपचार नयसे परपदार्थोको इंद्रियोंके माध्यमसे जानता है ऐसा कहा जाता हैं। इसलिये पराधीन संसार अवस्थामें वह व्यवहार नयसे परको जाननेवाला उपचारसे कहा जाता है वास्तवमें अनुपचरित निश्चय नयसे वह स्वयं आत्मज्ञ ही है । निश्चयसे आत्मज्ञ हुये विना व्यवहारसे परको जाननेकी क्रिया नहीं कर सकता । व्यवहारसे उपचारनयसे परको जानते समय भी प्रथम ज्ञान अपने स्वतःसिद्ध स्वभावसे अनुपचरित निश्चयनसे आत्मज्ञरुप स्वव्यवसाय करता हैं । स्वव्यवसाय रुप दर्शन हुये विना अर्थव्यवसाय रुप ज्ञेय पदार्थका ज्ञान होता नही। इसलिये आत्मा स्व-परज्ञ कहलाता हैं । इसलिये अध्यात्म नयसे आत्मा अनुपचारनयसे निश्चय नयसे आत्मज्ञ तथा उपचार नयसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001365
Book TitleAalappaddhati
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorBhuvnendrakumar Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1989
Total Pages168
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Nyay
File Size7 MB
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