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आलाप पद्धति शुद्धस्य एकान्तेन न कर्ममलकलंकावलेपः, सर्वथा निरंजनत्वात् ॥ १४६ ॥
यदि आत्माको एकान्तसे सर्वथा निरंजन शुद्ध स्वभाव माना जावे तो संसार अवस्थामें भी कर्ममल का अवलेप (बंधन) जो प्रत्यक्ष प्रतीत होता है उसको न माननेका प्रसंग आवेगा ।
सर्वथा अशुद्धकान्तेऽपि तथा आत्मनो न कदापि शुद्ध-स्वभाव प्रसंगः स्यात्, तन्मयत्वात् ॥ १४७ ।।
यदि आत्माको सर्वथा अशुद्ध माननेपर भी वह आगे कदापि शुद्ध स्वभाव वाला नहीं हो सकेगा । अर्थात् संसारी आत्मा सर्वदा संसारी अशुद्धही रहेगा। उसको कदापि मोक्ष की प्राप्ति नहीं होगी। परंतु नित्यविद्यमान शुद्धस्वभाव के आश्रयसे अशुद्ध-संसारी आत्मा सिद्ध अवस्था धारण कर शुद्ध होता है।
उपचरितकान्तपक्षे अपि न आत्मज्ञता संभवति, नियमित पक्षत्वात् ॥ १४८ ।।
यदि आत्माको सर्वथा उपचरित एकांत स्वरुप माना जावे तो वह कदापि स्वयं आत्मज्ञ संभव नहीं होगा। संसार अवस्थामें जैसा इंद्रियोंके माध्यमसे उपचारसे ज्ञाता बनता हैं जैसा सर्वथा उपचरित एकांत माना जावे तो सिद्ध अवस्थामें तथा आत्मज्ञ ज्ञानी अवस्थामें जो आत्मा स्वयं स्वसंवेदन द्वारा आत्मज्ञ बनता हैं वह आत्मज्ञता कदापि संभव नहीं होगी।
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