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एकांत पक्ष दोष (नयाभास) अधिकार
(९५) एक प्रदेशसा एकान्तेन अखंड परिपूर्णस्य आत्मनः अनेक कार्यकारित्वे-एव हानिः स्यात् ॥ १४४ ॥
__ यदि एकांतसे आत्मद्रव्यको एक प्रदेशी माना जावे तो अखंड बहु प्रदेशी परिपूर्ण यह आत्मा अनादि कालसे नाना योनियों में जो अनेक नानाविध आकार धारण करता हैं, बहुप्रदेशी सावयव होनेसे जो अनेक कार्य करता हैं उसके अभावका प्रसंग आवेगा।
सर्वथा अनेक प्रदेशत्वे अपि तथातस्य अनर्यकार्य कारित्वं स्वस्वभावशन्यता प्रसंगात् ।। १४५ ॥
उसी प्रकार यदि आत्माको सर्वथा एकांतसे अनेक प्रदेशी बहुप्रदेशी माना जावे तो आत्माके संपूर्ण भागमें अखंड प्रदेशोंमें जो एक अर्थक्रियारुप परिणमन होता है उसके अभाव का प्रसंग आवेगा।
विशेषार्थ- आत्माको सर्वथा अनेक-भिन्न भिन्न पृथक् पृथक प्रदेश माने जावे तो आत्माके अखंड परिपूर्ण असंख्यात प्रदेशोंम जो एकरुप अर्थक्रिया परिणमन होता हैं उसके अभाव का प्रसंग आवेगा। क्योंकि बहुप्रदेशी आत्माके अखंड पिंडरुप एक द्रव्य स्वभावमें एकरुप अर्थक्रिया होती है। सर्वथा भिन्नभिन्न अनेक प्रदेशोंमें एकरुप अर्थक्रिया का अभाव होगा।
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