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एकांत पक्ष दोष (नयाभास) अधिकार
( ९३ ) जैन शासनका इष्ट सिद्धान्त सिद्ध हो गया। यदि सर्वथा शद्ध नियमवाची (एकांतपक्षवाची) हैं, तो फिर वह नियमित (एकांत) पक्षवाची होने के कारण, संपूर्ण अर्थों की अर्थात् नित्य-अनित्य, एक-अनेक, भेद-अभेद, चेतन-अचेतन आदि सब पदार्थोकी प्रतीति कैसे होगो? अर्थात् कदापि नहीं होगी।
अन्य एकांत पक्षवाले 'सर्वथा' इस शद्वका अर्थ नियमवाची करते है । अर्थात् नियमसे वस्तुको अन्य धर्म निरपेक्ष एक विवाक्षित धर्मात्मक ही मानते है । इसलिये वे अन्यधर्मके विना अपने विवक्षित धर्मको भी सिद्धि नहीं कर सकने के कारण उनको स्ववैरी-मिथ्यादृष्टि कहा हैं । "निरपेक्षा नया मिथ्या, सापेक्षा वस्तु तेऽर्थकृत् ॥" अन्यधर्म निरपेक्ष नय स्ववैरी होनेके कारण मिथ्या हैं । और वेही जब अन्यसापेक्ष होते है तब वे सब अर्थक्रिया कारो वस्तुके वाचक होनेसे सम्यक् कहलाते है।
परसमयाण वयपां मिच्छं खलु होदि सव्वहा वयणा । जइणाणं पुण वयणं सम्म खु कहंचि वायणा दो॥
(गो. जीव ८९५) अन्य एकांत वादीयोंका वचन सर्वथा-परनिरपेक्ष एकही नियमित वस्तु धर्मकी मान्यता होनेके कारण मिथ्या है। परंतु अनेकांत जैन शासन स्याद्वाद सापेक्ष होनेके कारण वस्तुनिष्ठ सत्-असत, नित्य-अनित्य, एक-अनेक, भेद-अभेद उभय धर्म सापेक्ष होनेके कारण यथार्थ सम्यक है। - सर्वथा यह शब्द सर्व प्रकार वाचक, सर्व काल वाचक, . परस्पर विरोधी उभय धर्मात्मक वस्तुनिष्ठ होने के कारण समीचीन सम्यक्, प्रत्यक्ष प्रमाण प्रतीति सिद्ध हैं। परंतु सर्वथा शब्दका अर्थ
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