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________________ ( ९० ) एकांत पक्ष दोष (नयामास ) अधिकार भव्यस्यै कान्तेन पारिणामिकत्वात् द्रव्यस्य द्रव्यान्तरत्व प्रसंगात् । संकरादि दोष प्रसंगात् ॥ १३५ ॥ एकांत से सर्वथा भव्य ( भवितुं योग्य : ) परचतुष्टय रुपसे भी होने योग्य माना जावे तो कोई नियामक व्यवस्था न होनें के कारण एक द्रव्य अन्यरूप होनेका प्रसंग आवेगा । जीव अजीव रुप अजीव जीवरुप होवेगा जिस कारण सर्व संकर आदि दोषोंका प्रसंग आवेगा ॥ विशेषार्थ - यदि वस्तुको सर्वथा एकांतसे भव्य अर्थात् किसीभी रुप होने योग्य माना जावे तो कोई नियामंक न होने से एक वस्तु अन्य वस्तु रूप हो जानेसे सर्व सकर दोष आवेंगे । वस्तु परचतुष्टयसेभी होने योग्य माना जावे तो स्व और पर दोनों एकरुप होनेसे जीव अजीवरुप, तथा अजीव जीवरुप होने का प्रसंग आवेगा । ( सर्वेषां युगपत् प्राप्तिः संकरः ) सब एक रुप हो जावेंगे इस प्रकार सर्व संकर दोष आवेगा ( परस्पर विषययनं व्यतिकरः ) एक दूसरेका विषय बनेगा । चक्षुसे सुनना, कानसे देखना इस प्रकार व्यतिकर दोष का प्रसंग आयेगा। दो विरुद्ध धर्म एक साथ रहने से विरोध दोष आवेगा । इत्यादि अनेक दोष के प्रसंग आते हैं । सर्वथा अभव्यस्य एकान्तेऽपि तथा शून्यता प्रसंगात्, स्वरुपेण अपि अभवनात् ॥ १३६ ॥ यदि वस्तुको सर्वथा अभव्य - किसी भी रुपसे न होने योग्य माना जाय तो वस्तु स्वचतुष्टयसेभी न होने योग्य मानने से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001365
Book TitleAalappaddhati
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorBhuvnendrakumar Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1989
Total Pages168
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Nyay
File Size7 MB
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