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________________ (८६) आलाप पद्धती ३) विरोध- सत् को असत् मानना, असत् को सत् मानना, इस प्रकार परस्पर विरोधी धर्मोंका युगपत् सद्भाव मानना विरोध हैं । सत्-असत् दोनोंका युगपत् सद्भाव मानना । ४) वैयधिकरण्य- सत् और असत् का एक अभिन्न अधिकरण मानना, भिन्न भिन्न अधिकरण न मानना यह वैयधिकरण्य दोष है। ५) अनवस्था- एक दूसरेका कारण, दूसरा तीसरेका कारण इस प्रकार अमर्याद अन्य अन्य कारण कल्पना करना यह अनवस्था दोष है। जैसे जगत् सष्टिका कर्ता ईश्वर, ईश्वर का कर्ता अन्य ईश्वर-इस प्रकार अमर्याद अन्य अन्यकल्पना करना; कहींपर उसका अंत न होना इसको अनवस्था दोष कहते है। ६) संशय- उभय कोटिको स्पर्श करनेवाला दोलायमानज्ञान संशय हैं । जैसे यह सफेदवर्णवाली वस्तु सीप हैं या चांदी है। इसप्रकार दोलायमान ज्ञान संशय हैं। ७) अप्रतिपत्ति- (अनध्यवसाय) वस्तुस्वरुपका निश्चित निर्णय न होना अप्रतिपत्ति दोष कहलाता हैं । ८) अभाव- वस्तुका सर्वथा अभाव मानना । जैसे गधेका सिंग, आकाश पुष्प इस प्रकार सर्वथा एकांत पक्षमें अनेक दोष संभव होते है । एकांत पक्षवादी अन्य अविनाभावी धर्मके विना अपने पक्षकी भी सिद्धि नही कर सकता । इसलिये उसको स्ववैरी कहा हैं। तथा असद् रुपस्य सकलशून्यता प्रसंगात् ।। १२८॥ इस प्रकार सर्वथा एकांत पक्षमें उक्त संकर आदि दोष Jain Education International For Private & Personal Use Only ___www.jainelibrary.org
SR No.001365
Book TitleAalappaddhati
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorBhuvnendrakumar Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1989
Total Pages168
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Nyay
File Size7 MB
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