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________________ एकांत पक्ष दोष (नयाभास) अधिकार ( ८५) वस्तुको सर्वथा सत् माननेवाले पर चतुष्टयसे असत् का निषेध करनेके धारण अपने सत्पक्षकी भी सिद्धि नहीं कर सकते इसलिये एकांत नयको स्ववेरी कहा हैं। (सर्वे एकांतवादा: स्ववैरिणः परवैरित्वात्) इसके विपरीत जो अनेकांतवादी अन्य धर्मोको गुणरुपसे स्वीकार करते हैं वे स्वार्थ सिद्धि करते है इसलिये स्वार्थिक सम्यक् नय कहलाते है । तत् कथं ॥ २६ ॥ वह कैसे? तथाहि-सर्वथैकांतेन सद्रूपस्य न नियतार्थ व्यवस्था, संकरादिदोषत्वात् ।। १२७ ।। वह इसप्रकार- वस्तु स्वरुपसे सत् पररूपसे असत् इस प्रकार अनेकान्तात्मक होकर भी उसे सर्वथा एकांतसे सत् रुपही मानाजावे पररुपसे असत् नही मानाजावे तो पररुपसे भी सत् मानने के कारण वस्तुकी स्ववतुष्टयसे सतरुप नियत अर्थ व्यवस्था नही घटित होगी। स्वरुपसे सत् और पररुपसे भी सत् माननेके कारण संकर आदि दोष आते है । १ संकर २ व्यतिकर ३ विरोध ४ वैयधिकरण्य ५ अनवस्था ६ संशय ७ अप्रतिपती ८ अभाव ये एकांत मतोमें दोष आते हैं । १) संकर- स्व-परका एकत्र सद्भाव माननेसे स्व-परमें भेद न रहने से संकर दोष आता हैं । (सर्वेषांयुगपत् प्राप्तिः संकरः) २) व्यतिकर- वस्तुका नियत स्वरुप न रहनेसे स्वमें पर, और परमे स्वका प्रवेश मानना व्यतिकर दोष है। (परस्पर अनुप्रवेशः व्यतिकरः) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001365
Book TitleAalappaddhati
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorBhuvnendrakumar Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1989
Total Pages168
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Nyay
File Size7 MB
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