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________________ गुण व्युत्पत्ति अधिकार (७९) शुद्ध-और अशुद्ध स्वभावको व्युत्पत्ति शुद्धं केवल भावं अशुद्धं तस्यापि बिपरीतं ।। १२२ ॥ केवल स्वतः सिद्ध पर द्रव्यके संपर्क रहित स्वभावको शुद्ध कहते हैं। उसके विपरीत अन्य द्रव्यके संपर्क में जो विपरीत मान्यताके कारण स्वभावसे विपरीत भाव है वह अशुद्ध भाव हैं । (उपादान सदृशं कार्य) इस न्यायसे उपादान शुद्ध हो शुद्ध परिणति कार्य होता है । उपादान अशुद्ध हो तो अशुद्ध परिणति कार्य होता है। स्वभावस्य अपि अन्यत्र उपचारात् उपचरित स्वभावः ॥ १२३ ॥ एक द्रव्यके स्वभाव का अन्यद्रव्यमें उपचार करना यह उपचरित स्वभाव है। स द्वेधा, कर्मज-स्वभाविक भेदात् । यथा जीवस्य मर्तत्वं-अचेतनत्वं यथा सिद्धात्मनां परज्ञता (सर्वज्ञता) परदर्शकत्वंच (सर्वशित्वं) ॥ १२४ ॥ १) उपचरित स्वभावके दो भेद है ॥ १ कर्मजनित २ स्वभाविक जैसे-कर्मोदय जनित कर्मबद्ध जीवको मूर्त कहना। (बंधादो मुत्ति) जातिनाम कर्मोदयसे जीवको एकेंद्रिय-द्वींद्रिय आदि कहना। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001365
Book TitleAalappaddhati
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorBhuvnendrakumar Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1989
Total Pages168
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Nyay
File Size7 MB
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