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________________ ( ७८ ) आलाप पद्धति जैसे ज्ञान दर्शन आदि जीवके गुण हैं । वे अपनी अपनी विवक्षासे स्वभाव है ज्ञानका स्वभाव पृथक् है । दर्शनका स्वभाव पृथक् है । एक क्षेत्रमे रहते हुये भी ज्ञान जीवके सब प्रदेशोमे रहता है उसी प्रकार दर्शन भी जीवके संपूर्ण प्रदेशोंमे रहता हैं। इस प्रकार कालादि अपेक्षा उन्हे गुण होकर भी स्वभाव कहा है । द्रव्याणि अपि भवन्ति ।। १२० ।। प्रत्येक गुणके स्वद्रव्यादि चतुष्टय तथा द्रव्यके और अन्यगुणोके चतुष्टय एक ही होते हैं इसलिये स्वद्रव्यादि चतुष्टयकी अपेक्षासे गुण द्रव्यभी होते है ॥ स्वभावात् अन्यथा भवनं विभावः ।। १२१ ॥ पर्याय में स्वभाव के विरुद्ध अन्यथा रुप होना यह विभाव कहलाता हैं । पुद्गल और जीव इनमें वैभाविक शक्ति (गुण ) हैं । उस वैभाविक शक्तिके कारण अन्य द्रव्यके संयोग अवस्थामें इन दो द्रव्यों का स्वभाव विरुद्ध विपरीत विभाव परिणमन होता हैं पुद्गल द्रव्य परमाणुका अन्य परमाणुओंके साथ स्कंधरुप विभाव परिणमन होता है । जीवद्रव्यका कर्मरुप पुदुलके संयोगमें रागद्वेष मोहरूप विभाव परिणमन होता हैं। पूर्व अनादिकालीन विभाव परिणमन को स्वभावरुप मानना यह विपरीत मान्यताही विभाव परिणमन का मूल कारण हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001365
Book TitleAalappaddhati
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorBhuvnendrakumar Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1989
Total Pages168
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Nyay
File Size7 MB
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