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________________ ( ८० ) आलाप पद्धति पर्याप्तिनामकर्मोदयसे जीवको पर्याप्त कहना । ज्ञानावरण कर्मोदयसे जीवमें जो अज्ञान भाव है अचेतन भाव हैं । मोहकर्मके उदयसे राग-द्वेष- मोह आदि जीवके अचेतन भाव कहते है । ये कर्मजनित औपचरिक भाव हैं । २) कर्मके अभाव में जो जीवके स्वभाविक भाव प्रगट होते है उनको क्षायिकभाव कहना औपचारिक हैं | अथवा भगवान् के केवलज्ञान में संपूर्ण ज्ञेय पदार्थ स्वयं प्रतिबिंबित होते है इसलिये भगवानको सर्वज्ञ - सर्वदर्शी कहना यह स्वभाविक औपचारिक भाव है । जादि पस्सदि सव्वं ववहारणयेण केवली भगवं । केवलणाणी जाणदि पस्सदि नियमेण अण्णाणं ॥ ( नियमसार ) वास्तव में केवली भगवान आत्मज्ञ - आत्मदर्शी है | परंतु सर्व पदार्थ भगवानके ज्ञानमें स्वयं प्रतिबिंबित होते है इसलिय व्यवहार नयसे केवली भगवान सर्वज्ञ - सर्वदर्शी उपचारनयसे कहे जाते है | वास्तविक निश्चयसे वे आत्मज्ञ हैं ॥ एवं इतरेषां द्रव्याणां उपचारो यथासंभवो ज्ञेयः ।। १२५ ।। इस प्रकार अन्य द्रव्योमेंभी यथासंभव उपचार जानलेना ।। विशेषार्थ - तत्वार्थ सूत्र में जो बहुप्रदेशी द्रव्योंमें प्रदेश कल्पना है वह भी उपचार है । वास्तवमें प्रत्येक द्रव्य अखंड है । परंतु आकाश द्रव्यके जितने भागमें एक पुद्गल परमाणु व्यापता हैं उसको प्रदेश मानकर उस प्रदेशकी मापसे सावयव बहुप्रदेशी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001365
Book TitleAalappaddhati
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorBhuvnendrakumar Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1989
Total Pages168
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Nyay
File Size7 MB
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