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________________ आलाप पद्धती ( ७१) __नहि अमूर्तस्य नभसः मदिरा मदकारिणी (तत्वार्थ सार) १९ मदिगके कारण आत्मा अभिभूत-मच्छित अचेतन समान दिखाई देता हैं। इसलिये संसारी आत्मा मूर्त कर्म-नोकर्म सहित होने के कारण उपचारसे मूर्तिक कहा जाता हैं । (बंधादो मुत्ति) कर्म बद्ध संसारी आत्मा मूर्त कहा जाता हैं। जीवाजीवं दव्वं रूवारूवित्ति होदि पत्तेयं ।। संसारत्था रूवा कम्मविमुक्का अरूवाया ।। (गो. जीवकोड ५६३) जीवद्रव्य कथंचित् रूपी-तथा अरुपी कहा जाता हैं। संसारी जीव रूपी तथा कर्म विमुक्त सिद्ध जीव अरुपी है । उसी प्रकार अजीव द्रव्य-पुद्गल द्रव्य भी रुपी-तथा अरुपी कहा जाता है। कार्माण वर्गणारुप पुद्गल द्रव्य रुपी है, परंतु जीवसे बद्ध हुआ कर्म जीवके ज्ञानादि गुणोंका घातक होनेसे कथंचित् चेतनअरुपी कहा जाता है कम्म संबंधवसेण पोग्गलभावमुपगयजीव दव्वाणं च पच्चक्खेण परिछित्ति कुणइ ओहिणाणं ।। (धवल पु. १ पृ. ४३) कर्मसंबध वश पुद्गलभावको प्राप्त जीव द्रव्यके गुणस्थानादि अचेतन भावको अवधिज्ञान प्रत्यक्षसे जानता हैं । अनादिबंधन बद्धत्वतः मर्तानां जीवावयवानां मर्तेन शरीरेण संबंधप्रति विरोध-असिद्धेः (धवला १ पृ. २९२) अनादिबंधनबद्ध मूर्त जीवके प्रदेशोंका मूर्त शरीरके साथ संश्लेष संबंध होनेमें कोई विरोध नहीं है। अमूर्तस्य भावः अमूर्तत्वं, रुपादि रहितत्वं ॥ १०४॥ अमूर्त द्रव्योंका जो भाव वह अमूर्तत्व गुण हैं । धर्म-अधर्म Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001365
Book TitleAalappaddhati
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorBhuvnendrakumar Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1989
Total Pages168
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Nyay
File Size7 MB
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