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पर्याय व्युत्पत्ति अधिकार
आकाश-काल और जीव द्रव्य रुपादि गुणोंसे रहित होनेके कारण अमूर्त है ।।
विशेषार्थ- इस ग्रंथके प्रथम अधिकारमे सामान्य-विशेष गुणोंका प्ररूपण किया है। यहां इस अधिकारमें गुणोंका क्या स्वरुप हैं यह व्याकरण शास्त्रके अनुसार शब्द-व्युत्पत्तिरुपसे विवेचन किया है । जैसे सुवर्णका सुवर्णत्व यह 'त्व' प्रत्यय भाववाचक अर्थमें लगाया जाता है। उसीप्रकार जीवादि द्रव्योंके अस्तित्वादि सामान्य गुण तथा चेतनत्वादि विशेष गुण इनमे 'त्व' प्रत्यय उनके भावका वाचक हैं । अस्तित्व यह गुण जीवादि द्रव्योंके 'अस्ति'का सत् लक्षणका भावका वाचक है। उसीप्रकार वस्तुत्व आदि धर्म वस्तुके भावके वस्तु पना के सूचक है .. 'त्वं' यह प्रत्यय भाववाचक होनेसे उसका वस्तुसंज्ञा वाचक नामोंके साथ लगानेसे 'अस्तित्व' आदि शब्द बन जाते हैं । इस प्रकार सामान्य विशेष गुणोंका व्युत्पत्ति अर्थ कहा गया ।
८ पर्याय-व्युत्पत्ति अधिकार
स्वभाव-विभाव रूपतया याति पर्येति परिणमति इति पर्यायः, इति पर्यायस्य व्युत्पत्तिः ॥ १०५ ॥
विशेषार्थ- वस्तुका जो विकार-विकृति-प्रतिकृति उसको पर्याय कहते है। धर्म-अधर्म-आकाश-काल द्रव्य इन चार द्रव्योंका परिणमन तो शुद्ध स्वभाव रुप ही होता हैं । जीव और पुद्गल द्रव्योंका परिणमन उनके वैभाविक शक्ति के कारण स्वभाव और विभाव रुप दोनों प्रकारका होता है। अन्य द्रव्यके
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