________________
आलाप पद्धती
( ६९) प्रदेशस्य भावः प्रदेशत्वं, (प्रदेशवतः भावः प्रदेशवत्वं) सावयवत्वंक्षेत्रत्वं । अविभागी-पुद्गल-पुरमाणुना अवष्टब्धं क्षेत्रं प्रदेशः ॥ १०० ।।
प्रदेशवानपनेका जो भाव वह प्रदेशवत्व गुण हैं । अविभागी परमाण द्वारा व्याप्त जो आकाश का भाग उसे प्रदेश कहते हैं। उसीको क्षेत्र कहा है। द्रव्य अपने प्रदेशों में व्याप्त रहता है इसलिये प्रदेशवान्पना प्रदेशवत्व यह द्रव्यका सामान्य गुण है ।
जावदियं आयासं अविभागी पुग्गलाणुवट्टद्धं । त खु पदेसं जाणे सव्वाणुट्ठाणदाणरिहं ।।
आकाश द्रव्यके जितने अंशभागमें अविभागी एक पुद्गल परमाणु व्यापता हैं उस आकाशप्रदेश भाग को प्रदेश कहते है। उस एक परमाणु व्याप्त आकाश प्रदेश भागमें सर्व परमाणुओंको भी अवगाह देनेकी शक्ति रहती है।
जेत्तियमेत्तं खेत्तं अणुना रुद्धं खु गयणदव्वस्स । तं च पयेसं भणियं जाण तुमं सव्वदरसीहिं
॥१४१ ॥ प्रा. नयचक्र आकाश द्रव्यका जो भाग एक पुद्गल परमाणु द्वारा व्याप्त है, उसे प्रदेश कहते है ऐसा सर्वदर्शी जिनभगवानने कहा हैं ।
चेतनस्य भावः चेतनत्वं । चैतन्यं अनभवनं ॥ १०१॥
चेतन द्रव्यका जो भाव वह चेतनत्व गुण हैं । चैतन्य का अर्थ अनुभवन वेदन है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org