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________________ नय अधिकार ( ५९ ) अशुद्ध सद्भूत व्यवहारो यथा-अशुद्ध-गुणगुणिनोः अशुद्ध-पर्याय-पर्यायिणो: भेवकथनम् कर्मोपाधि सापेक्ष मतिज्ञानादि विभाव गुण और संसारी अशुद्ध आत्मा तथा कर्मोपाधि सापेक्ष नर-नारकादि अशुद्ध पर्याय और संसारी आत्मा इनमें संज्ञा लक्षण प्रयोजनादि भेद विवक्षासे भेद कथन करना यह अशुद्ध सद्भूत व्यवहार नय है। विशेषार्थ- कर्मोपाधि रहित अवस्थामें आत्माके गुण और पर्याय शुद्ध प्रगट होते है इसलिये गुण गुणी तथा पर्याय-पर्यायवान् आत्मामें अभेद होते हुये भी संज्ञा लक्षण आदि भेद प्रयोजन वश भेदरूप कथन करना यह शुद्ध सद्भूत व्यवहार नय है। तथा कर्मोपाधि सहित संसार अवस्थामें संसारी आत्माके मतिज्ञानादि विभाव गुण तथा नरनारकादि अशुद्ध पर्याय इनमें अभेद होते हुये भी संज्ञादि प्रयोजन वश भेद रूप कथन करना यह अशुद्ध सद्भूत व्यवहार नय है। इस प्रकार सद्भूत व्यवहार नयके दो भेदोंका वर्णन किया। असद्भत व्यवहार नय: त्रेधा ।। ८४ ।। असद्भूत व्यवहार नयके तीन प्रकार है । १) स्वजाति-असद्भूत व्यवहारो यथापरमाणुः बहु प्रदेशी इति कथनं ॥ ८५ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001365
Book TitleAalappaddhati
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorBhuvnendrakumar Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1989
Total Pages168
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Nyay
File Size7 MB
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