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________________ नय अधिकार ( ५७ ) समभिरूढो यथा- गौः पशः ॥ ७८ ॥ समभिरूढ नय- जैसे गो यह अनेक अर्थबाचक होनेपर भी लोक व्यवहार रूढीमे वह पशु वाचक ग्रहण करना यह समभिरूढ नय है ।। नानार्थ समभिरोहणात् समभिरूढः । अनेक अर्थोको गौण कर एकार्थ पर जो आरूढ होता है वह समभिरूढ नय है ।। एवं भतो नयो यथा इन्दतीति इन्द्रः । ७९। शब्दके अर्थानुसार जब क्रिया परिणति करता है तब उसको उस शब्द द्वारा संबोधित करना यह एवंभूत नय है। । जैसे - जब इंद्रासन पर बैठकर विभूषित होता है तब उसे इंद्र कहना। विशेषार्थ- शब्द नय समभिरूढ नय एवं भूत नय ये पर्यायार्थिक नय सामान्यत: शब्दनय कहे जाते है। इनमें शब्दकी प्रधान विवक्षा रहती है। शब्दनय-लिंग-वचन- कारक आदि भेद विवक्षासे शब्दभेदसे अर्थभेदका ग्रहण करता है। जो नय लोकव्यवहार रूढ अर्थको ग्रहण करता है उसे समभिरूढ नय कहते है । तथा एवंभूत नय जिस समय शब्दको अर्थानुसार क्रिया होती है उसी समय उस शब्द द्वारा उसे संबोधित करता है । इनसे पहले नैगमादि चार नय अर्थनय कहे गये है। इस प्रकार नयोंके अट्टाईस भेद कहे गये । द्रव्याथिक नयके १० भेद, पर्यायाथिक नयके ६ भेद नैगमनयके काल भेदकी अपेक्षा वर्तमान, भूत, भविष्य भेदसे ३ भेद । संग्रह, व्यवहार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001365
Book TitleAalappaddhati
Original Sutra AuthorDevsen Acharya
AuthorBhuvnendrakumar Shastri
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
Publication Year1989
Total Pages168
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Nyay
File Size7 MB
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