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साम्यवाद और श्रमण-संस्कृति
मैं साम्यवाद से डरता नहीं हूँ। मेरा धर्म श्रमण-संस्कृति का धर्म है, और उसका मूलाधार अपरिग्रह है, जो साम्यवाद का ही दूसरा नाम है।
श्रमण-संस्कृति का आदर्श है, कम-से-कम लेना और बदले में अधिक-से-अधिक देना। अपनी इच्छाओं, आवश्यकताओं का क्षेत्र कम करना, आवश्यकता से अधिक वस्तुओं का संग्रह न रखना, अपने समान ही अपितु अपने से अधिक दूसरों की भूख और नग्नता का ध्यान रखना, जीवन का महत्व अपने लिए नहीं, किन्तु दूसरों के लिए समझना, यह है श्रमण-संस्कृति के अपरिग्रहवाद की मूल भावना। __ “जीओ और जीने दो” यह स्वर है, जो श्रमण-संस्कृति के इतिहास में लाखों वर्षों से मुखरित होता आया है । आज के साम्यवाद का भी तो यही स्वर है । हाँ, आज के साम्यवाद के स्वर में हिंसा, घृणा, बलात्कार और वर्ग-संघर्ष के भीषण चीत्कार एवं हाहाकार भी सम्मिलित हो गए हैं ! हमारा कर्तव्य है कि हम चीत्कार और हाहाकार की पशु-भावना को दूर करके पारस्परिक सहयोग, मैत्री, प्रेम के बल पर मानव-भावना का मधुर घोष मुखरित करें। आज के साम्यवाद में जहाँ भोगवाद का स्वर उठ रहा है, वहाँ हमें त्यागवाद का स्वर छेड़ना होगा, और यही होगा—साम्यवाद का भारतीय संस्करण ।
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