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दो पाँखें
आचार्य भद्रबाहु ने एक बात कही है__ मोक्ष की ओर उड़ चलने के लिए जीवन में आचार और विचार की दोनों पाँखों की आवश्यकता है। यही बात हारीत स्मृतिकार ने कही है
यथान्नं मधु संयुक्तं मधु वान्नेन संयुतम् उभाभ्यामपि पक्षाभ्यां यथा वै पक्षिणां गति: ७।१०
तथैव ज्ञान कर्माभ्यां प्राप्य ते ब्रह्म शाश्वतम्-७।११ मीठे से युक्त अन्न और अन्न से युक्त मीठा-सुस्वाद होता है। दोनों पंखों से ही पक्षी आकाश में उड़ सकता है उसी प्रकार ज्ञान और कर्म से ब्रह्म की प्राप्ति होती है। ___ मनुष्य को जीवन में हमेशा द्वित्व की जरूरत पड़ी है। नर और नारी दो ही हैं, शरीर में दो पैर हैं, दो ही हाथ हैं, दो आँख और दो कान हैं। दो के बिना जीवन का संतुलन ही बिगड़ जाता है । जिस गाड़ी का एक ही चक्र हो तो उससे यात्रा नहीं की जा सकती।
नहु एगेण चक्केण रहं पयाई" इसीलिए भगवान महावीर ने उद्घोष किया कुछ लोग जो पागल दार्शनिकों की भाँति फिरते हैं, पुकारते हैं-सुयं सेयं-ज्ञान ही श्रेष्ठ है, वे कभी कल्याण नहीं कर सकते। __ और जो केवल क्रियाकाण्डों के चक्रव्यूह में फंसे रहते हैं-य: क्रियावान, स पण्डित:- के सूत्र वाचक हैं वे भी संसार में ठोकरें खाते रहे हैं । उनका-सोलं सेयं-क्रिया ही श्रेष्ठ है-का नारा उनकी नैया को पार नहीं लगा सका।
जीवन की गाड़ी को चलाने के लिए आचार और विचार का संतुलन आवश्यक है । ये दोनों पाँखें ठीक होंगी तभी जीवन की अनन्त आकाश में गति की जा सकेगी।
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अमर डायरी
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