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जैन पुराणों का सांस्कृतिक अध्ययन
'वैखानख' शब्द प्रयुक्त होता था । जैन पुराणों में वानप्रस्थाश्रम के लिए परिवाट, नैष्ठिक, श्रावक शब्दों का प्रयोग हुआ है। महा पुराण में वर्णित है कि गृहस्थधर्म का पालन कर घर के निवास से विरक्त होते हुए पुरुष का जो दीक्षा ग्रहण करना है, उसे पारिवज्य कहते हैं। इसी पुराण में आगे वर्णन आया है कि परिवाट का जो निर्वाण दीक्षा रूप भाव है, उसे पारिव्रज्य कहते हैं । इस पारिव्रज्य-क्रिया में ममत्वभाव छोड़कर दिगम्बर रूप धारण करना पड़ता है। पद्म पुराण में इसी प्रकार का मत व्यक्त किया गया है कि जो परिग्रह को संसार का कारण समझकर उसे छोड़कर मुक्ति को प्राप्त करते हैं, वे परिव्राजक कहलाते हैं। यथार्थ में मोक्षरहित निर्ग्रन्थ मुनि ही परिव्राजक हैं। परिव्राजक की परिभाषा को निरूपित करते हुए महा पुराण में वर्णित है कि जो आगम में कही हुई जिनेन्द्रदेव की आज्ञा को प्रमाण मानता हुआ तपस्या धारण करता है, उसी को यथार्थ में पारिव्राजक कहते हैं। इसी पुराण के अनुसार मोक्ष के अभिलाषी पुरुष की शुभ तिथि, शुभ नक्षत्र, शुभ योग, शुभ लगन और शुभ ग्रहों के अंश में निर्ग्रन्थ आचार्य के पास दीक्षा ग्रहण करनी चाहिए।
महा पुराण में पारिव्राजक की योग्यता के विषय में वर्णित है कि जिसका कुल एवं गोत्र विशुद्ध है, चरित्र उत्तम है, मुख सुन्दर है और प्रतिभाशाली है, ऐसा पुरुष ही दीक्षा ग्रहण करने के योग्य माना गया है। उक्त पुराण में पारिव्राजक के लक्षण का उल्लेख है कि जाति, मूर्ति, उसमें रहने वाले लक्षण, शरीर की सुन्दरता, प्रभा, मण्डल, चक्र, अभिषेक, नाथता, सिंहासन, उपधान, छत्र, चामर, घोषणा, अशोक वृक्ष, निधि, गृहशोभा, अवगाहन, क्षेत्रज्ञ, आज्ञा, सभा, कीर्ति, वन्दनीयता,
१. ऋग्वेद ६।६६; तैत्तिरीयारण्यक १।२३; गौतम धर्मसूत्र ३।२; बौधायनधर्मसूत्र
३।६।१६ २. महा ३६१५५ ३. वही ३६।१५६; तुलनीय-वानप्रस्थ अवस्था में मनुष्य वन में कठोर नियमों
का पालन करते हुए रहता है । याज्ञवल्क्य ३।४५ ४. पद्म १०६८६ ५. महा ३६।१६६ ६. वही ३६।१५७ ७. वही ३६।१५८
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