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सामाजिक व्यवस्था
प्राचीन भारतीय संस्कृति में अतिथि का महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। अतिथियों की सेवा-सुश्रूषा आदि करना गृहस्थों का प्रधान कर्त्तव्य था। 'अतिथि' शब्द की व्युत्पत्ति निरुक्तकार ने किया है। अतिथि उसे कहते हैं जो पूरे दिन नहीं रुकता है या एक रात्रि के लिए रुकता है ।२ जैनेतर ग्रन्थों में अतिथि के विषय में सविस्तार वर्णन हुआ है।
हरिवंश पुराण में अतिथि की परिभाषा निरूपित करते हुए वर्णित है किजो संयम की वृद्धि के लिए निरन्तर भ्रमण करता रहता है वह अतिथि कहलाता है। उसे शुद्धिपूर्वक आगमोक्त विधि से आहार आदि देना अतिथिसंविभाग व्रत है। अतिथिसंविभाग व्रत को भिक्षा, औषध, उपकरण और आवास के भेद से चार प्रकार का मानते हैं।"
जैन पुराणों में आतिथ्य-सत्कार पर विशेषतः बल दिया गया है। हरिवंश पुराण में उल्लिखित है कि अत्यधिक पुण्य के उदय होने पर ही अतिथि घर आते हैं। अतिथि के आने पर सुगन्धित चन्दन, शुभ अक्षत, नैवेद्य, दीप, धूप, द्रव्य आदि द्वारा मनसा, वाचा एवं कर्मणा उन्हें नमस्कार करें। हरिवंश पुराण में चान्द्रीचर्या (छोटे-बड़े सभी के घर जाने ) का नियम अतिथि के लिए वर्णित है अर्थात् जैसे चन्द्रमा छोटे-बड़े सभी के यहाँ समान प्रकाश देता है, उसी प्रकार अतिथि को भी समान रूप से सभी के यहाँ जाना चाहिए।
३. वानप्रस्थाश्रम : प्राचीन जैनेतर ग्रन्थों में वानप्रस्थ के अर्थ में
१. निरुक्त ४।५ २. मनुस्मृति ३।१०२; पराशर ११४२; मार्कण्डेय पुराण २५॥२-६ ३. ऋग्वेद ४।४।१०, ४।३३।७; अथर्ववेद १६; ऐतरेय ब्राह्मण २५।५; शतपथ
ब्राह्मण २।१।४।२; कठोपनिषद् १७६ ४. स संयमस्य वृद्ध्यर्थमततीत्यतिथिः स्मृतः । हरिवंश ५८।१५८ ५. हरिवंश ५८।१५८-१५६; तुलनीय-गौतम ५।२६-३४; आपस्तम्बधर्मसूत्र
रा३।६।७-१५, मनुस्मृति ३६६ ६. हरिवंश १५६ ७. वही १५।१२ ८. वही ६१८०
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