________________
जैन पुराणों का सांस्कृतिक अध्ययन
पड़ते हैं। जैन पुराणों के अनुसार पाँच अणुव्रत-अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह हैं, जिसे सूक्ष्मरीति से अर्थात् पूर्णरूप में (महावत) धारण किये जावें तो मुनि का धर्म और यदि स्थूलरीति से धारण किये जावें तो गृहस्थ का धर्म है ।२
आजीविका के छः कर्मों के करने से जो हिंसा का दोष लगता है उसके निवारणार्थ जैन धर्म में तीन मार्ग वर्णित हैं-पक्ष, चर्या एवं साधन । मैत्री, प्रमोद, कारूण्य, माध्यस्थ्य में वृद्धि एवं हिंसा का त्याग पक्ष है । देवता, मंत्र की सिद्धि, औषधि एवं भोजन बनाने में किसी जीव की हिंसा न करने की प्रतिज्ञा तथा प्रतिज्ञा में प्रमाद से दोष लग जाने पर प्रायश्चित द्वारा उसकी शुद्धि करना और सब कुछ पुत्र को सौंपकर परित्याग करना गृहस्थ की चर्या है। आयु के अन्त में शरीर आहार एवं समस्त चेष्टाओं का त्याग कर ध्यान की शुद्धि से आत्मा को शुद्ध करना साधन है। इस प्रकार न्यायमार्ग से अपने आत्मा के गुणों का उत्कर्ष प्रकट करता हुआ वह पुरुष सर्वश्रेष्ठ अवस्था को प्राप्त कर सद्गृहस्थ होता है । जैन पुराणों में वर्णित है कि जो गृहस्थ अन्त समय सब प्रकार के आरम्भ का त्याग कर शरीर में भी निःस्पृह हो जाते हैं तथा समताभाव से मरण करते हैं, वे उत्तम गति को प्राप्त होते हैं । इसी को सल्लेखना कहते हैं ।
पद्म पुराण और हरिवंश पुराण में गृहस्थों के नियमों की विवेचना की गयी है । गृहस्थाश्रमवासियों को मधु, मांस, शराब, जुआ, रात्रिभोजन और वेश्यासमागम से विरक्त होना ही नियम कहलाता है। जैन ग्रन्थों में सूर्यास्त के बाद भोजन करने की अत्यधिक निन्दा की गयी है और ऐसे भोजन को अपवित्र पदार्थ की संज्ञा दी गयी है। इसी संदर्भ में पद्म पुराण में वर्णित है कि रात्रि में अमृत भी पीने का निषेध किया गया है। यदि रात्रि में कोई अमृत पीता है तो वह विष पीता है।"
१. पद्म १४।१८३; हरिवंश १८१४५, ५८।१४३;. महा १०११६२ २. महा १०।१६३; पद्म १४।१८०-१६६; हरिवंश १०७ ३. वही ३६।१४३-१४५ ४. वही ३६११२५ ५. पद्म ४।४७; हरिवंश ५८।१५७ ६. पद्म १४।२०२; हरिवंश ५८।१५७ ७. पद्म १४।२७१-३०८,१०६।३२-३३
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org