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सामाजिक व्यवस्था
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करना चाहिए क्योंकि ऐसा करने से वस्तुतः वह अपनी शक्ति से वंचित होता ही है और इसके अतिरिक्त वह प्रकारान्त से अपने मांस का विक्रय करता है तथा उसकी तुलना कचड़ा-घर से की गयी है ।२ पुराणकार ने भृत्य-वृत्ति को सब प्रकार से निन्दनीय बताया है।'
[५] वर्णसंधर : उपजातियों का विश्लेषण : प्राचीन भारतीय समाज के जिज्ञासु अन्वेषक विद्वानों ने यह सुझाव रखा है कि सामाजिक संरचना के निश्चित चार स्तरों के अतिरिक्त प्रारम्भ में एक उपस्तर भी प्रकाश में आ रहा था, जिसके आविर्भाव की मूल प्रेरणा वर्णसंकर द्वारा उपलब्ध हुई । वर्णसंकर के पक्ष में प्रारम्भ में प्रारम्भिक धर्मशास्त्र एवं पुराण नहीं थे। इस मौलिक उद्भावना के अवशेष उत्तरकालीन जैनेतर ग्रन्थों में तो प्राप्य होते ही हैं, इसके अतिरिक्त तत्सम्बन्धित विवरण आलोचित पुराणों में भी उपलब्ध हैं। उदाहरणार्थ, हरिवंश पुराण तथा महा पुराण में इस प्रकार का वर्णन प्राप्य है कि वर्णसंकरता को दूर करना राजा का कर्तव्य है और वर्णसंकर उत्पन्न करने वाले लोग दण्ड के पात्र हैं।
किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि उत्तरकालीन सामाजिक संश्लिष्टता एवं नवीन आर्थिक मान्यताओं के फलस्वरूप बहुत-सी उपजातियाँ प्रकाश में आ चुकी थीं, जिनके उल्लेख जैनेतर ग्रन्थों (बृहत्धर्म पुराण) में प्राप्त होते हैं जिन्हें आलोचना का विषय बनाया जा चुका है।"
जैन सम्प्रदाय में जाति-व्यवस्था को मान्यता प्राप्त नहीं थी। जैन आगमों में जाति-व्यवस्था की निन्दा की गयी है। जैन पुराणों में से पद्म पुराण में जाति
१. पद्म ६७।१४८ २. वही ६७।१४४ ३. वही ८।१६२, ६७।१४० ४. हरिवंश १४१७; महा १६।२४८ ५. बृहत्धर्म पुराण ३।१३; आर० सी० मजूमदार-हिस्ट्री ऑफ बंगाल, भाग १,
पृ० ५६७; रमेश चन्द्र हाज़रा-स्टडीज़ इन द उपपुराणाज, भाग २,
पृ० ४३७ ६. उत्तराध्ययन १२।३७; आचारांग २ (३) । ४६
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