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सामाजिक व्यवस्था
(ध्वजाहृत), भोजन के बदले रखा हु। (भुक्तदास), दासीपुत्र (गृहज), खरीदा हुआ (क्रीत), दूसरे के द्वारा दिया हुआ (दात्रिम), पूर्वजों से प्राप्त (पैतृक) और भुगतान के लिए बना हुआ (दण्डदास)। पं. वासुदेव उपाध्याय के मतानुसार भृत्यों और दासों में इतना अन्तर था कि भृत्य नौकरी करते हुए भी स्वतंत्र थे और इस प्रकार वह जो कमाता था उसका अधिकारी वह स्वयं होता था। परन्तु दास परतंत्र होते थे तथा वे जो कुछ अर्जन करते थे, वह उनके स्वामी का होता था ।२
दास प्रथा की सूचना जैन पुराणों से भी उपलब्ध होती है । महा पुराण के अनुसार सेवक का यह कर्त्तव्य था कि वह स्वामी के अनुसार चले तथा उसके मुट्ठियों से दिये हुए अन्न से जीवन निर्वाह करे।' पद्म पुराण की प्रवृत्ति इस संदर्भ में कुछ उदार प्रतीत होती है। इसके अनुसार सेवक को स्वामी के समीप भय-रहित होकर ऐसे वचन बोलना चाहिए, जो स्वामी के लिए हितकारी हो। महा पुराण ने स्वामी के हितार्थ सेवक द्वारा आत्मोत्सर्ग किया जाना उसका उचित कर्त्तव्य माना है। ऐसा प्रतीत होता है कि उदार हृदय स्वामी अपने सेवक का समुचित सम्मान भी करता था। इस ग्रन्थ का कथन है कि स्वामी द्वारा सत्कृत होने पर सेवक जितना संतुष्ट होता है. उतना प्रचुर मात्रा में धनराशि देने पर भी नहीं होता। हरिवंश पुराण के अनुसार अपने-अपने नियोगों पर अच्छी तरह स्थिर रहना ही भृत्यों की स्वामी-सेवा है। पद्म पुराण में वर्णित है कि संभ्रमदेव ने अपनी दासी के कूट तथा कार्पटिक नामक दो पुत्रों को जैन मन्दिर में नियुक्त किया था। इससे यह स्पष्ट होता है कि स्वामी का अपने दास या दासियों के बच्चों पर भी अधिकार रहता था।
१. ध्वजाहृतो भुक्तदासो गृहजः क्रीतदात्रिमो ।
पौत्रिको दण्डदासश्च सप्तते दासयोनयः ॥ मनु ४८।१५ २. वासुदेव उपाध्याय-गुप्त साम्राज्य का इतिहास, भाग २, इलाहाबाद, १६५२,
पृ० २४० ३. महा ४४।१२५; तुलनीय-गौतम १०॥६०-६१; मनुस्मृति १०।१२४-१२५ ४. परमार्थो हि निर्भीकरुपदेशोऽनुजीविभिः । पद्म ६६।३ ५. महा ४४।२३४-२३५ ६. वही ४२।१५७ ७. भर्तृ सेवा हि भूत्यानां स्वाधिकारेषु सुस्थितिः । हरिवंश ५६।२१ ८. पद्म ५२१२२-१२३
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