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सामाजिक व्यवस्था
का; इन्द्र, वरुण एवं यम को क्षत्रिय का; वसु, विश्वदेव एवं मरुत को वैश्यों का और ऊषा को शूद्र का प्रतिनिधि प्रस्तावित किया है।'
४. विभिन्न वर्गों की सामाजिक स्थिति एवं कर्तव्य : जैन पुराणों के अध्ययन से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्रों की सामाजिक स्थिति एवं उनके कर्तव्यों पर प्रकाश पड़ता है। तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था का प्रभाव जैनाचार्यों पर भी पड़ा है। उन्होंने तत्कालीन परिस्थितियों के आलोक में अपने ग्रन्थों का प्रणयन किया । उक्त वर्णों के विषय में विस्तृत विवरण अधोलिखित अनुच्छेदों में किया गया है।
[अब्राह्मण : जैन ग्रन्थों ने सामान्यतया ब्राह्मण के लिए द्विज और ब्राह्मण शब्द का प्रयोग किया है, किन्तु प्रसंगतः इनमें विप्र, भूदेव, श्रोतिए, पुरोहित, देवभोगी, भौहूर्तिक, वाडव, उपाध्याय तथा त्रिवेदी जैसे शब्द भी प्राप्त होते हैं ।२ द्विज शब्द की इनकी परिभाषा पारम्परिक ब्राह्मण ग्रन्थों की परिभाषा के समान चलती है। महा पुराण के अनुसार वह व्यक्ति द्विजन्मा (द्विज) है, जिसका जन्म एक बार माता के गर्भ से और दूसरी बार उसकी क्रिया (पारम्परिक ग्रन्थों में वर्णित संस्कार) से होता है। प्रस्तुत पुराण इस बात पर भी बल देता है कि जिसमें क्रिया और मंत्र दोनों का अभाव है, वह मात्र नामधारक द्विज है। इस पुराण ने एक अन्य महत्त्वपूर्ण तथ्य पर बल देते हुए वर्णित किया है कि चारों वर्गों में मौलिक भेद इसलिए नहीं है कि गर्भधारण क्रिया सभी के प्रसंग में समान है। इनमें भेद का कारण वस्तुतः उनके निर्धारित कर्त्तव्य हैं, जिसे इस पुराण ने 'जातिकृत' भेद की संज्ञा प्रदत्त की है। इनमें स्वाभाविक भेद का अभाव है, जिसे आलोचित पुराण ने 'आकृति' भेद का अभिधान दिया है। डॉ० जगदीश चन्द्र जैन के मतानुसार जैन सूत्रों में
१. काणे-हिस्ट्री ऑफ धर्मशास्त्र, भाग २, खण्ड १, पूना, १६७४, पृ० ४२;
वायुपुराण ३०॥६७; ब्रह्माण्ड पुराण २।१३।६५ २. गोकुल चन्द्र जैन-वही, पृ० ६० ३. द्विजातो हि द्विजन्मेष्ट: क्रियातो गर्भतश्च यः ।
क्रिया मंत्रविहीनस्तु केवलं नामधारकः ॥ महा ३८।४८ द्विज के अन्तर्गत ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य आते हैं। मनु १०।४; याज्ञवल्क्य
१।१०; वायु पुराण ५६२१; ब्रह्माण्ड पुराण २।३२।२२ ४. महा ३८।४७,७४।४६१-४६३
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