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________________ ३८ जैन पुराणों का सांस्कृतिक अध्ययन अपेक्षा गुण पर अधिक बल दिया था और अन्य कुछ विद्वानों के मतानुसार इनमें अधिकांशतः उन्हीं विचारों की झाँकी मिलती है, जो पारम्परिक हिन्दू-चिन्तकों के विचार हैं । किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि जहाँ कहीं तत्कालीन जैन विचारकों के विधि-निषेधों में उदारता की प्रवृत्ति परिलक्षित होती है, वहाँ वे मूलतः जैन समाज के मौलिक प्रारम्भिक विचारों की उद्भावना करते हैं और जहाँ कहीं इनके विचारों में पृथक् पक्ष का परिचय प्राप्त होता है, वहाँ-जैसाकि हम ऊपर कह चुके हैंतत्कालीन विशिष्ट राजनैतिक परिस्थितियों का परिणाम माना जा सकता है। ३. वर्ण-व्यवस्था के नियामक उपादान : जैन महा पुराण के वर्णन से ज्ञात होता है कि जैन आचार्यों को यह मान्य था कि वर्ण सीमा में ही विवाह सम्पन्न करना एक ऐसा प्रतिबन्ध है, जिसके कारण वर्ण-व्यवस्था सुरक्षित रह सकती है और इसके परिणामस्वरूप सामाजिक सन्तुलन भी व्यवस्थित रह सकता है। प्रस्तुत जैन पुराण के उल्लेखों से यह स्पष्टतः प्रमाणित हो जाता है कि इसकी रचना काल में वर्णधर्म का व्यतिक्रम हो रहा था, लोग अपने से पृथक् वर्ग की आजीविका ग्रहण करने लगे थे और इसके अतिरिक्त इस व्यतिक्रम प्रधान प्रवृत्ति पर सामाजिक नियन्त्रण का यथोचित प्रभाव नहीं पड़ रहा था । ऐसी स्थिति में राज्य की ओर से ऐसे कानून निर्मित किये गये, जिनके अनुसार अपनी आजीविका के प्रत्यागी व्यक्ति को दण्ड का भागी होना पड़ता था। पद्म पुराण में भी कुल धर्म पर विशेष बल दिया गया है।" इस बात का उल्लेख पूर्व ही कर चुके हैं कि तत्कालीन अभिलेखों में कतिपय महत्त्वपूर्ण शासकों को वर्ण-व्यवस्था के नियमन का श्रेय प्रदान किया गया है । इसके अतिरिक्त जैनेतर साक्ष्यों से प्रतीत होता है कि पारम्परिक हिन्दू समाज में वर्ण-व्यवस्था के नियन्त्रणार्थ एक अन्य प्रवृत्ति क्रियाशील थी। इन्होंने पार्थिव वर्ण-व्यवस्था की एक अलौकिक एवं दैवी प्रतिच्छाया प्रदर्शित की, जिसमें अग्नि तथा बृहस्पति को ब्राह्मण १. कथाकोष प्रकरण, पृ० १२०; द्रष्टव्य, यादव-वही, पृ० ८ २. के० पी० जैन-जैन एण्टीक्वटी, भाग १३,१६४७, अंक १ ३. महा १६१२४७ ४. स्वामिमां वृत्तिमुत्क्रम्य यस्त्वन्या वृत्तिमाचरेत् । स पार्थिवैनियन्तव्यो वर्णसंकीणिरन्यथा ॥ महा १६।२४८ ५. पद्म २१।१५६, २२।२८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001350
Book TitleJain Puranoka Sanskrutik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeviprasad Mishra
PublisherHindusthani Academy Ilahabad
Publication Year1988
Total Pages569
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Culture
File Size8 MB
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