________________
सामाजिक व्यवस्था
थी । गुप्त साम्राज्य के पतन के उपरान्त तथा विदेशी आक्रमणों के सामान्तर 'चातुर्वर्ण' के सुदृढ़ीकरण और सशक्त बनाने की जो प्रक्रिया प्रारम्भ हुई, वह इस समयावधि में निरन्तर चलती रही । नालन्दा से उपलब्ध एक मुहर अभिलेख में मौखरि वंश के नरेश महाराज हरिवर्मा के विषय में वर्णित है कि उन्होंने अपने राज्य में वर्णव्यवस्था के सुदृढ़ीकरण का प्रयास किया था। सातवीं शती ई० के एक ताम्रपत्र अभिलेख में बलभी नरेश विषयक उल्लेखानुसार वर्णाश्रम को प्रतिष्ठित कर उन्होंने मनु का समस्तरीय सम्मान प्राप्त किया था। आठवीं शती ई० के उड़ीसा से प्राप्त एक अभिलेख में उल्लेख है कि क्षेमङ्कर वर्ण और आश्रम के कर्त्तव्यों को व्यवस्थित करने में व्यस्त रहते थे । ग्यारहवीं शती के धनपाल ने अपने ग्रन्थ तिलकमंजरी में सार्वभौम महामेघवाहन को वर्णाश्रम व्यवस्थित करते हुए प्रदर्शित किया है ।" नागपुर के पाषाण-अभिलेख में मालवा नरेश लक्ष्मणदेव (सन् १०८० - ११०४ ई० ) को वैवस्वत मनु का पुत्र बताया है । मानसोल्लास में सोमेश्वर राज्य की व्यवस्था को सुधारने के लिए 'वर्णाधिकारी, नामक पदाधिकारी' की नियुक्ति का वर्णन है । इसी प्रकार दशकुमारचरित में दण्डी के कथनानुसार राजा पुण्ड्रवर्मा ने मनु की व्यवस्था के अनुकूल चारों वर्णों को सुव्यवस्थित किया था । "
उक्त प्रसंगों के आलोक में कतिपय विद्वानों ने यह मत प्रतिपादित किया है कि जैन पुराणों के रचना काल में जाति प्रथा विषयक जैनियों के विचार पारम्परिक हिन्दू-चिन्तकों के विचारों की अपेक्षा अधिक उदार थे अर्थात् उन्होंने जन्म की
१. मन्दसोर स्तम्भलेख ( फ्लीट - सी० आई० आई०, भाग ३, पृ० १४६), १।३१, जी० आर० शर्मा- एक्सवेशन्स ऐट कौशाम्बी, इलाहाबाद, १६५७-५८, पृ० ४६,५४; देवी भागवत ४ | ८ | ३१; खोह ताम्रपत्र अभिलेख (गु० सं० २०६), महाराज संक्षोभ ( फ्लीट - सी० आई० आई०, भाग ३, सं० २५ ), १1१० एपीग्राफिका इण्डिका, भाग २१, पृ० ७४
३. कलेक्शन ऑफ प्राकृत एण्ड इंस्क्रिप्शन, नं०५, पृ० ५०
४. एपीग्राफिका इण्डिका, भाग १५, पृ० ३
५. तिलकमंजरी, पृ० ११
६. एपीग्राफिका इण्डिका, भाग २, पृ० १६२
७. मानसोल्लास, भाग २, पृ० १०४
८. दशकुमारचरित, काले संस्करण, पृ० १८८
३७
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org