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जैन पुराणों का सांस्कृतिक अध्ययन
करने का निषेध है । इसी कथन को और स्पष्ट करते हुए महा पुराण में अन्य प्रसंग में वर्णित है कि प्रारम्भ में वर्ण व्यवस्था नहीं थी, किन्तु कालान्तर में चार वर्णों में विभक्त वर्ण-व्यवस्था प्रकाश में आयी । प्रसंगानन्तर में महा पुराण तथा पद्म पुराण ने वर्ण विभाजन का आधार औचित्य सापेक्ष माना है । इनके कथनानुसार व्रतों के संस्कार से ब्राह्मण, शस्त्र धारण करने से क्षत्रिय, न्यायोचित रीति से धनोपार्जन करने से वैश्य और इनसे विपरीत वृत्ति का आश्रय लेने से मनुष्य शूद्र कहलाने लगे
जैन पुराणों के रचना काल में सामान्यतया वर्ण-व्यवस्था का ह्रास हो रहा था, जिसके निदर्शन साक्ष्य तत्कालीन अभिलेखों एवं ग्रन्थों में उपलब्ध हैं । सातवींआठवीं शती के वर्मन् राजा वर्णाश्रम को सुधारने का प्रयास कर रहे थे । आठवीं शती के एक गुर्जर प्रतिहार अभिलेख में इस प्रकार का उल्लेख आया है कि कलियुग के प्रभाव के कारण वर्णाश्रम धर्म निर्धारित व्यवस्था से च्युत् हो रहा था ।" नवीं शती ई० के सामाजिक स्वरूप का उल्लेख करते हुए शंकराचार्य ने ऐसा अभिव्यञ्जित किया है कि वर्ण और आश्रम धर्मों में व्यवस्था का सर्वथा अभाव हो गया था । ' तिलकमंजरी के प्रणेता धर्मपाल ने अपने युग के धर्मविप्लव का स्पष्ट उल्लेख किया है । दशकुमारचरित में दण्डी ने चातुर्वर्ण को कलियुग में अव्यवस्थित वर्णित किया है ।" ये सभी साक्ष्य तत्कालीन सामाजिक विपर्यय की ओर संकेत करते हैं ।
इसके साथ ही साथ यह यथार्थ है कि गुप्तकाल के बाद उत्तर भारत में विदेशी आक्रमण से राजनैतिक एवं सामाजिक व्यवस्था अस्त-व्यस्त हो गयी
१.
२.
महा १६।१८७
वही ३८।४५
ब्राह्मणा व्रतसंकारात् क्षत्रियाः शस्त्रधारणात् ।
वणिजोऽर्थार्जनान्न्याय्यात् शूद्रान्यग्वृत्तिसंश्रयात् ॥ महा ३८|४६;
पद्म ११।२०१ - २०२
४.
आर० बसाक - हिस्ट्री ऑफ नार्थ इस्टर्न इण्डिया, १६३४, पृ० ३१४ ५. एपीग्राफिका इण्डिका, भाग २३, १६३५-३६, पृ० १५०
६. ब्रह्मसूत्र—शांकरभाष्यम्, निर्णय सागर प्रेस, बम्बई, पृ० २७३ तिलकमंजरी, पृ० ३४८-४६
७.
दशकुमारचरित्र, पृ० १६०
८.
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