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सामाजिक व्यवस्था
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पुराणों में ब्राह्मणों की उत्पत्ति के विषय में उल्लिखित है कि चक्रवर्ती भरत ने एक बार अपने यहाँ दानादि के लिए श्रावकों को आमंत्रित किया। राजभवन के आँगन में हरी-हरी घास उगी थी । जीवहत्या के भय से जो व्रती श्रावक भरत के पास नहीं गये और बाहर खड़े रहे; उन्हें उन्होंने ब्राह्मण घोषित किया । यहाँ उल्लेखनीय है कि वर्णन विषयक उक्त समता के होते हुए भी जैन सम्प्रदाय के मत में इनका कर्ममूलक सिद्धान्त अधिक मान्य था । यही कारण है कि उत्तराध्ययन सूत्र ने ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्रों के विभाजन का आधार मूलतः कर्म ही माना है। इसी निर्देश को अधिक स्पष्ट करते हुए पद्म पुराण में वर्णित है कि कोई भी जाति निन्दनीय नहीं है। वस्तुतः कल्याण का कारण गुण है । यदि चाण्डाल भी व्रत में रत है, तो वह भी ब्राह्मण कहलाने का अधिकारी होता है । यही विचार गुणभद्र ने व्यक्त किया है कि मनुष्यों में जाति कृत भेद नहीं होता है।
किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि जैन पुराणों के रचना काल में विशिष्ट राजनीतिक परिस्थितियों के कारण जो अराजकता उत्पन्न हुई थी और जिसके फलस्वरूप सामाजिक संतुलन आयात-प्रतिघात का विषय बन रहा था, उनके कारण जैन आचार्यों को भी विभिन्न वर्गों के निर्धारित आजीविका में आबद्ध एवं सीमित होने के लिए विवश होना पड़ा था। महा पुराण के अनुसार भिन्न-भिन्न वर्गों को अपने-अपने वर्णानुसार निर्धारित आजीविका के अतिरिक्त अन्य आजीविका को ग्रहण
१. महा ३८१७-२०; हरिवंश ११।१०५-१०७; पद्म ५।१६५ २. उत्तराध्ययन सूत्र २५१३३ ३. न जातिगर्हिता काचिद्गुणाः कल्याणकारणम् ।
व्रतस्थमपि चाण्डालं तं देवो ब्राह्मणं विदुः ॥ पद्म ११।२०३ तुलनीय--चातुर्वर्ण्य मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः । गीता ४।१३
महाभारत, शान्तिपर्व १८६४-५; वराङ्गचरितम् २५।११ ४. नास्ति जातिकृतो भेदो मनुष्याणां । महा ७४।४६२
मत्स्य पुराण, पृ० ३४५; राजतरंगिणी १।३१२-३१७; मन्दसोर शिलास्तम्भ लेख (फ्लीट-सी० आई० आई०, भाग ३, पृ० १४६, १।३); जी० आर० शर्मा-एक्सवेशन्स ऐट कौशाम्बी, पृ० ४६-५४; देवी भागवत ४।८।३१; हर्षचरित, अध्याय ३; द्रष्टव्य, यादव-सोसाइटी ऐण्ड कल्चर इन' नार्दर्न इण्डिया, इलाहाबाद, १६७३, पृ० ४-५
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