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जैन पुराणों का सांस्कृतिक अध्ययन
क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र-ये तीन वर्ण उत्पन्न हुए । ऋषभदेव ने जिन पुरुषों को विपत्तिग्रस्त मनुष्यों के रक्षार्थ नियुक्त किया था, वे अपने गुणों के कारण लोक में 'क्षत्रिय' नाम से प्रसिद्ध हुए; जिनको वाणिज्य, खेती एवं पशु-पालन आदि के व्यवसाय में लगाया था, वे लोक में 'वैश्य' कहलाये । जो नीच कर्म करते थे तथा शास्त्र से दूर भागते थे, उन्हें 'शूद्र' की संज्ञा प्रदान की गयी । महा पुराण में भी उक्त विचार व्यक्त किया गया है । परन्तु इसके अतिरिक्त यह भी कहा गया है कि जो शस्त्र धारण कर आजीविका करते थे वे 'क्षत्रिय' हुए; जो खेती, वाणिज्य एवं पशुपालन आदि के द्वारा जीविका करते थे वे 'वैश्य' कहलाये और जो उन (क्षत्रिय एवं वैश्य) की सेवा-शुश्रूषा करते थे, उन्हें 'शूद्र' की संज्ञा दी गयी । ऐसी सम्भावना हैं कि उस समय भाड़े के सैनिकों की अत्यधिक आवश्यकता थी और यह क्षत्रियों की उत्पत्ति को द्योतित करता है ।
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उक्त पुराणों में क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र वर्णों का स्पष्ट उल्लेख हुआ है । कहीं-कहीं पर जैन पुराणों के वर्णन वैदिक परम्परा से प्रभावित पारम्परिक धर्मशास्त्र एवं पुराणों के सर्वथा अनुकूल हैं अर्थात् ब्रह्मा के मुख से ब्राह्मण, बाहुओं से क्षत्रिय, उरुओं से वैश्य तथा पैर से शूद्र- इन चार वर्णों की उत्पत्ति बतायी गयी है । महा पुराण में वर्णित है कि ऋषभदेव ने अपनी दोनों भुजाओं में शस्त्र धारण कर क्षत्रियों की सृष्टि की, क्योंकि हाथों के हथियार से वे निर्बलों की सबलों से रक्षा
यात्रा दिखलाकर वैश्यों की कर व्यापार द्वारा आजीविका
करते थे, इसलिए वे क्षत्रिय कहलाये । अपने उरुओं से रचना की, क्योंकि वे जल, स्थल आदि प्रदेशों में यात्रा चलाते थे । सदैव नीच वृत्ति में तत्पर रहने के कारण शूद्रों की रचना पैर से किया क्योंकि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य की सेवा-शुश्रूषा करना शूद्रों का कर्म था । ऋषभदेव के पुत्र भरत मुख से शास्त्रों का अध्ययन कराते हुए ब्राह्मणों का सृजन करेंगे ।" जैन
१. पद्म ३।२५६-२५८; हरिवंश ६ । ३८६
महा १६।१८३
३. वही १६।१८४-१८५
श्लोक ५-६;
४. ऋग्वेद १०।६०।१२; महाभारत, पूना, १६३२, अध्याय ३६६. मनुस्मृति १।३१; एस० एन० राय - पौराणिक धर्म एवं समाज, इलाहाबाद
१६६८, पृ० १५२
महा १६।२४३-२४६; पद्म ५।१६४
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