________________
सामाजिक व्यवस्था
३३
साथ चातुर्वर्ण्य का सम्बन्ध जुड़ गया और इसके परिणामस्वरूप सामाजिक जीवन
और श्रीत-स्मार्त परम्पराएँ जैन समाज और जैन चिन्तकों को प्रभावित करती गयीं। एक शताब्दी व्यतीत होते-होते यह प्रभाव जैन जनमानस में इस तरह पैठ गया कि नवीं शती में जिनसेन ने उन सब मन्तव्यों को स्वीकार कर लिया और उन पर जैन धर्म की मुहर भी लगा दी । महा पुराण में पूर्वोक्त अनुश्रुति को सुरक्षित रखने के बाद भी ब्राह्मण ग्रन्थों की भाँति चार वर्णों के पृथक्-पृथक् कार्य, उनके सामाजिक एवं धार्मिक अधिकार, चार आश्रमों और संस्कारों (तिरपन गर्भान्वय, अड़तालीस दीक्षान्वय एवं आठ कन्वय क्रियाओं) का विस्तारशः वर्णन किया है।'
२. वर्ण-व्यवस्था और उसका स्वरूप : वर्ण-व्यवस्था के सम्बन्ध में जैन पुराणों में महत्त्वपूर्ण सामग्री प्राप्य होती है, जिनका उल्लेख निम्नांकित दृष्टिकोण से महत्त्वपूर्ण है : १. पुराणकारों ने वर्ण-व्यवस्था विषयक मान्यताओं को निबद्ध किया है। २. श्रौत और स्मार्त परम्परा में वर्णित वर्ण-व्यवस्था विषयक मान्यताओं का
भी समावेश किया है। ३. पुराणकाल में सामाजिक जीवन में वर्ण-व्यवस्था की क्या स्थिति थी, इसका
विस्तृत वर्णन प्राप्त होता है। श्रौत-स्मार्त परम्परा में मान्य वर्ण-व्यवस्था के सिद्धान्तों का प्रभाव जैन धर्मानुयायिओं पर किस प्रकार हुआ और उसके परिणामस्वरूप उन मान्यताओं का पुराणकारों ने किस प्रकार जैनीकरण किया; इस सम्बन्ध में भी प्रचुर सामग्री प्राप्त होती है।
जैन पुराणों में उपलब्ध सामग्री का विश्लेषण तत्कालीन अन्य साहित्यिक एवं अभिलेखीय साक्ष्यों के आधार पर प्रस्तुत किया गया है।
जैन पुराणों के अध्ययन से ज्ञात होता है कि आदि काल में वर्ण-व्यवस्था नहीं थी। लोग इच्छानुकूल व्यवसाय किया करते थे। किसी पर कोई प्रतिबन्ध नहीं था । पद्म पुराण तथा हरिवंश पुराण में वर्णित है कि ऋषभदेव ने सुख-समृद्धि के लिए समाज में सुव्यवस्था लाने की चेष्टा की थी और इस व्यवस्था के फलस्वरूप
१. गोकुल चन्द्र जैन-वही, पृ० ६८-७०
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org