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जैन पुराणो का सांस्कृतिक अध्ययन
[ख] वर्ण-व्यवस्था
१. वर्ण-व्यवस्था और जैन मान्यता : जैन पुराणकालीन समाज छोटेछोटे वर्गों में बँटा हुआ था । आदर्श रूप में उन दिनों भी वर्णाश्रम व्यवस्था की वैदिक मान्यताएँ प्रचलित थीं । वर्णाश्रम व्यवस्था की वैदिक मान्यताओं का प्रभाव सामाजिक जीवन के रग-रग में इस प्रकार प्रवाहित था कि इस व्यवस्था का घोर - विरोध करने वाले जैन धर्म के अनुयायी भी इनके प्रभाव से अछूते न रह सके । दक्षिण भारत में यह प्रभाव सर्वाधिक पड़ा । इसका प्रभाव वहाँ उत्पन्न होने वाले जैनाचार्यों के साहित्य में दृष्टिगोचर होता है । आचार्य जिनसेन ने उन सभी वैदिक नियमोपनियमों का जैनीकरण कर उन पर जैन धर्म की छाप लगा दी थी । जिन्हें वैदिक प्रभाव से प्रभावित होने के उपरान्त भी जैन समाज मानने लगा था । जैनाचार्य ने वैदिक साहित्य तथा सामाजिक वातावरण के प्रभाव के कारण अनेक वैदिक मान्यताओं एवं विचारों का जैनीकरण करने का प्रयत्न किया । मूल में जैन धर्म वर्ण-व्यवस्था तथा उसके आधार पर आधारित सामाजिक व्यवस्था को स्वीकार नहीं करता था । सैद्धान्तिक ग्रन्थों में सामाजिक व्यवस्था सम्बन्धी मन्तव्यों का वर्णन नहीं है । पौराणिक अनुश्रुति भी चातुर्वर्ण्य व्यवस्था को सामाजिक व्यवस्था का आधार नहीं मानती । अनुश्रुति के अनुसार सभ्यता के प्रारम्भिक चरण ( कर्मभूमि )
ऋषभदेव ने असि, मसि, कृषि, विद्या, शिल्प तथा वाणिज्य का उपदेश दिया । उसी आधार पर सामाजिक व्यवस्था निर्मित हुई । लोगों ने स्वेच्छा से अपना-अपना कार्य धारण कर लिया और कोई कार्य छोटा-बड़ा नहीं समझा गया । इसी तरह किसी कार्य के करने में धर्म ने भी व्यवधान उपस्थित नहीं किया । कालान्तर के साहित्य में यह अनुश्रुति तो सुरक्षित रही, तथापि उसके साथ में वर्ण व्यवस्था का सम्बन्ध जोड़ा जाने लगा । सातवीं शती के जयसिंहनन्दि ने चातुर्वर्ण्य व्यवस्था की लौकिक तथा श्रौतस्मार्त्त मान्यताओं और परम्पराओं का विस्तारपूर्वक खण्डन किया है। पद्म पुराण के रचयिता रविषेणाचार्य ( ६७६ ई०) ने पूर्वोक्त अनुश्रुति तो सुरक्षित रखी, किन्तु उसके साथ वर्णों का सम्बन्ध संयुक्त कर दिया । हरिवंश पुराण में जिनसेन ( ७८३ ई०) ने रविषेणाचार्य के कथन को ही अन्य शब्दों में दोहराया है। उक्त आचार्यों द्वारा इस प्रकार की कर्मणा वर्ण-व्यवस्था का प्रतिपादन करते रहने के बाद भी उसके
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१. गोकुल चन्द्र जैन - यशस्तिलक का सांस्कृतिक अध्ययन,
१६६७, पृ० ५६
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अमृतसर
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