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________________ सामाजिक व्यवस्था एवं कलाओं की शिक्षा उपलब्ध कराना वांछनीय माना है, वहीं पुत्रियों को भी उक्त विद्याओं को और इनमें विशेषतया अक्षर विद्या तथा अंकविद्या सिखाने का निर्देश दिया है । हरिवंश पुराण में कन्याओं को शास्त्रों में पारंगत तथा प्रतियोगिता में विजयी दिखाया गया है । उसी प्रकार जैन सूत्रों में भी वर्णन प्राप्य है कि पिता ईश्वर के तुल्य है और इस प्रसंग में इनका निर्देश है कि प्रातःकाल उठकर न केवल पुत्र, अपितु पुत्रियाँ भी पिता की चरण-वन्दना करें । ४. पारिवारिक परिधि : आयाम एवं सीमा : प्राचीन भारतीय समाज के जिज्ञासु आधुनिक चिन्तकों ने इस प्रश्न पर भी विचार करने का प्रयास किया है कि पारिवारिक परिधि का संकोच अथवा विस्तार किस सीमा तक था ? जाली ने कृत्यकल्पतरु, मिताक्षरा और दायभाग के प्रसंगों एवं विधि निषेधों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला है कि तत्कालीन पारिवारिक परिधि संकुचित नहीं थी । जैन पुराणों के विवरण इनके समानान्तर चलते हैं । महा पुराण में स्त्रियों के लिए शत- पुत्र उत्पन्न करने का आशीर्वाद, भरत के सौ पुत्रों का उल्लेख, मरुदेवी के सौ पुत्रों का प्रसंग, वज्रसंध को अपने अट्ठानबे पुत्रों का पिता होना कल्पना का अतिरञ्जन अवश्य है, किन्तु इनसे व्यंजना यही निकलती है कि इनका मन्तव्य पारिवारिक परिधि के विस्तार से है । इस प्रकार की सूचनाएँ अन्य प्राचीन संस्कृतियों के साक्ष्यों से भी प्राप्य हैं, जिसमें प्राचीन चीन के आदर्शों का विशेष उल्लेख किया जा सकता है ।" ५ १. महा १६।१०५-११७; पद्म १५/२०, २४।५ २. हरिवंश २१।१३३ ३. ज्ञातृधर्मकथा १, पृ०१६ ४. जाली - वही, पृ० ८१, ८३, १६८ ५. सुखं प्रसूष्व पुत्राणां शतमित्यधिकोत्सवः । महा १५/४५ ६. महा ३७/२१ वही ४६ ८. एन०सी० सेनगुप्ता - इवोल्युशन ऑफ ऍशेण्ट इण्डियन लॉ, कलकत्ता, १६५३, पृ० २१० ७. ३१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001350
Book TitleJain Puranoka Sanskrutik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeviprasad Mishra
PublisherHindusthani Academy Ilahabad
Publication Year1988
Total Pages569
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Culture
File Size8 MB
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