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जैन पुराणों का सांस्कृतिक अध्ययन
धनुर्वेद, अश्वविद्या, रत्नपरीक्षा, शस्त्रविद्या आदि विषयों पर विशेष बल दिया है।' । जैन पुराणों ने पुत्र की उत्पत्ति पुण्य के प्रभाव से मानी है। महा पुराण में पुत्र के लिए 'कुलभूषण' शब्द प्रयुक्त हुआ है।
... प्रस्तुत प्रसंग में यह प्रश्न विचारणीय हो जाता है कि तत्कालीन भारत के क्षेत्रीय विषमताओं, परम्पराओं तथा प्रथाओं का जैन पुराणों के वर्णनों पर प्रभाव पड़ा है अथवा नहीं ? इन पुराणों के रचनाकाल में भारतीय समाज की गतिविधि का नियमन जीमूतवाहन एवं विज्ञानेश्वर जैसे व्यवस्थापक कर रहे थे, जिन्हें क्रमशः आर्य और द्राविड़ प्रथाओं का प्रतिनिधि माना जाता है। जे०डी०एच० डैरेट के मतानुसार जीमूतवाहन ने पिता को पारिवारिक संस्था एवं सम्पत्ति का निर्विरोध स्वामी स्वीकार किया है और विज्ञानेश्वर ने उसे केवल प्रबन्धक माना है। यही कारण है कि विज्ञानेश्वर ने यह भी व्यवस्था की है कि पुत्र पिता के जीवन काल में ही अपनी सम्पत्ति का विभाजन कर सकता था। जैन पुराणों में से महा पुराण में वर्णित है कि विवाहोपरान्त वर्णलाभ क्रिया (संस्कार) द्वारा योग्य पुत्र अपना परिवार पृथक् बनाते थे और पिता से अपनी सम्पत्ति का विभाजन भी करवाते थे। किन्तु यहाँ पर विचारणीय है कि महा पुराण का उक्त उल्लेख द्राविड़ परम्परा का द्योतक है अथवा नहीं ? क्योंकि जैसा कि हम पूर्व ही संकेत कर चुके हैं कि विज्ञानेश्वर द्राविड़ प्रथाओं के प्रतिनिधि माने गये हैं । महा पुराण के उक्त संदर्भ से ज्ञात होता है कि पुराणकार ने जैन धर्म में प्राचीन द्राविड़ परम्परा का भी समावेश किया है।
द्वितीय विचारणीय प्रश्न यह है कि परिवार में पुत्री को कैसा स्थान दिया गया था ? तत्कालीन जैनेतर ग्रन्थों से विदित होता है कि इनकी स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी। उदाहरणार्थ, कथासरित्सागर के अनुसार पारिवारिक जीवन में पुत्रियाँ अवांछनीय थीं। किन्तु जैन पुराणों में इसके विपरीत वर्णन उपलब्ध होता है। उदाहरणार्थ, महा पुराण में जहाँ पिता के लिए पुत्रों को विभिन्न प्रकार की विद्याओं
१. महा १६।१०५-१२५ २. हरिवंश ८।१०४, २१।८-८; महा ५४१४६; पद्म ८।१५७ ३. महा ५४१६३ ४. डैरेट-रिलिजन, लॉ ऐण्ड स्टेट इन ऐंशेण्ट इण्डिया, लन्दन, १६६८, पृ० ४११ ५. महा ३८११३८-१४१ ६. कथासरित्सागर २८।६
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