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सामाजिक व्यवस्था
आदर-सत्कार करने का निर्देश दिया है ।" पारिवारिक कलह को रोकना दोनों का ही कर्त्तव्य था । कलह का कारण कभी तो पत्नी होती थी और कभी पति । परन्तु दोनों ही स्थितियों में सौमनस्य और सामञ्जस्य स्थापित करना उनका धर्म था ।
प्रसंगतः यहाँ उल्लेखनीय है कि प्राचीन संस्कृतियों में अन्यत्र भी संयुक्त परिवार के होने की सूचना उपलब्ध है । रोमन कानूनों से प्रतीत होता है कि पिता संयुक्त परिवार का स्वामी होता था । अतएव वह परिवार के अन्य सदस्यों पर नियंत्रण भी रखता था । किन्तु जैसा कि जाली के मतानुसार उत्तरकालीन स्तरों पर पिता की निरंकुशता पर नियंत्रण लाने की चेष्टा की गयी और इस चेष्टा का उद्देश्य था मात्र पारिवारिक संतुलन | "
प्रस्तुत विवेचन के संदर्भ में यह भी उल्लेखनीय है कि जैन पुराणों के रचना-काल में संयुक्त परिवार की संस्था के विरुद्ध कुछेक प्रवृत्तियाँ क्रियाशील थीं । किन्तु जैन पुराण इस प्रकार का स्पष्ट निर्देश नहीं देते हैं । अपितु जैसा कि अग्रिम अनुच्छेदों में वर्णन किया जायेगा कि इस प्रवृत्ति की आंशिक झलक अवश्य
मिलता है ।
सामान्यतया जैन पुराण सामाजिक व्यवस्था के आदर्श से प्रेरित थे । वे संयुक्त परिवार के पक्ष में चलते थे । पिता का कर्तव्य था कि वह गार्हस्थ्य उत्तर- दायित्व से मुक्त होने के पूर्व अपने वंश के अनुवर्ती संरक्षक पुत्र को सुयोग्य बनाये ।" वह उसकी शिक्षा का समुचित प्रबन्ध करता था । न केवल अध्यात्म के क्षेत्र में, अपितु पुत्र को लौकिक विद्याओं की शिक्षा उपलब्ध करने में भी वह तत्पर रहता था । इस संदर्भ में महा पुराण ने अर्थशास्त्र, संगीतशास्त्र, लक्षणशास्त्र, आयुर्वेद,
१. पद्म ६७ । १५५; महा १६।६४-६५
२.
३.
पद्म ६६।४०-४१; महा १६ / ६४-६५ तुलनीय आवश्यकचूर्णी, पृ० ५२६ जाली - आउट लाइन्स ऑफ एन हिस्ट्री ऑफ द हिन्दू लॉ ऑफ पार्टिश, इन्हेरीटेंस ऐण्ड एडान्सन, कलकत्ता, १६८५, ८१-८३
2.
२६
पी० एस० एस० ऐयर - इवोल्युशन ऑफ हिन्दु मारल आइडियल्स, कलकत्ता, १६३५, पृ० ४२
जाली - वही, पृ० ८३
५.
६. वही
७. महा ४।१३६ - १४०
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