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सामाजिक व्यवस्था
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इस सन्दर्भ में महा पुराण ने कुलाचार का प्रसंग देते हुए इस बात पर बल · दिया है कि कुल की मर्यादा की सुरक्षा का उत्तरदायित्व उसके सदस्यों पर है और यदि इस मर्यादा में किसी प्रकार का व्यवधान हुआ अथवा आचार की रक्षा नहीं हुई तो समस्त सम्पन्न क्रियायें विनाश को प्राप्त होती हैं । आचार्य वीरसेन ने धवला-टीका में गोत्र, कुल, वंश तथा संतान को एक ही अर्थ में प्रयोग किया है।
जैन पुराणों में कुल की शुद्धि की ओर भी ध्यान आकृष्ट किया गया है और इस प्रकार वणित है कि यह तभी सम्भव है जबकि द्विज केवल कुल-स्त्री का सेवन करें और यह भी उल्लिखित है कि कुलाचार उसी स्थिति में निर्दोष रहता है, जबकि 'गोत्र-शुद्धि' की क्रिया साथ-साथ चलती है। इसी लिए कुलाङ्गनाएँ अपने पति के अनुरूप चलती थीं और पति को मर्यादित होने पर बल दिया गया है। यही कारण है कि पति-पत्नी एक दूसरे के पूरक कहे गये हैं। पं० फूलचन्द्र शास्त्री के कथनानुसार जैन धर्म में गोत्र का सम्बन्ध वर्ण-व्यवस्था के साथ न होकर प्राणी के जीवन से सम्बद्ध है और उसकी व्याप्ति चारों गतियों के जीवन में देखी जाती है।
__ जैन पुराणों के उक्त निर्देश आधुनिक समाजशास्त्रीय विचारों के अधिकांशतः समस्तरीय हैं। इनके अनुसार परिवार वह प्राथमिक माध्यम है जो वैयक्तिक आचरण को सामाजिक-परिधि में ढालता है। डॉ० पन्थारी नाथ प्रभु के मतानुसार समाज की व्यवस्था करने वाले और उसके प्रारम्भिक विचारकों ने भी परिवार को मानव-जीवन की व्यवस्था में उच्च स्थान दिया है। जो नैतिक और सामाजिक क्रियाएँ परिवार में सम्पन्न होती हैं उनका सहज प्रभाव समाज पर पड़ता है और एतदनुसार ही समाज की गतिविधि का नियमन अथवा संचालन भी होता रहता है। समाजशास्त्री एफ० इंगेल्स के अनुसार परिवार वह सामाजिक इकाई है जिसमें युग-युगान्तर की परम्पराओं, भावनाओं तथा व्यवहार विषयक प्रथाओं का समावेश होता रहता है और परिवार के ही माध्यम से इन सभी तत्त्वों का उसके सदस्यों पर स्वाभाविक
१. महा ४०।१८१ २. द्रष्टव्य, फूलचन्द्र-वर्ण, जाति और धर्म, वाराणसी, १६६३, पृ० १४३ ३. पद्म ८।११; हरिवंश १७।१६; महा,६।५६
फूलचन्द्र-वही, पृ० १२३ ५. आर० एम० मेक्लवर तथा सी० एच० पेज-सोसाइटी, लंदन, १६६२,
अध्याय २ ६. प्रभु-हिन्दू सोशल आर्गनाइजेशन्,बम्बई, १६५४, पृ० १२५
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