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च
साक्ष्य - अनुशीलन
और कहीं पर विस्तृत हैं । उनमें जैन सिद्धान्तों का प्रतिपादन, सत्कर्मप्रवृत्ति तथा असत्कर्मनिवृत्ति, संयम, तप, त्याग, वैराग्य, ध्यान, योग, कर्म-सिद्धान्त की प्रबलता के साथ हुआ है । इसके अतिरिक्त तीर्थंकरों की नगरी; माता-पिता का वैभव, कर्म, जन्म अतिशय क्रीड़ा, शिक्षा, दीक्षा, तपस्या, प्रव्रज्या, परिषह उपसर्ग, केवल ज्ञान प्राप्ति, समवसरण धर्मोपदेश, विहार, निर्वाह, इतिहास आदि का वर्णन संक्षेप या विस्तार के साथ मिलता है । सांस्कृतिक दृष्टि से इन तत्त्वों में भाषातत्त्व का विकास सामान्य जीवन का चित्रण तथा रीति-रिवाज के दर्शन होते हैं । "
जैन धर्म ने यद्यपि वैदिक धर्म के कर्मकाण्ड का विरोध किया, किन्तु आगे चलकर जैन धर्म में भी ब्राह्मण आचार, व्रत, धर्म, संस्कार इत्यादि कितने ही धार्मिक कृत्य अपना लिये गये ।
पारम्परिक पुराणों में देश व काल दोनों ही दृष्टिकोण से अनिश्चितता पायी जाती है, किन्तु जैन पुराणों में काल निर्देश की प्रवृत्ति प्रायः अधिक स्पष्ट है और जैन पुराणों के प्रमुख रचयिता एवं उनके रचना काल का स्पष्ट उल्लेख भी है ।
जैन मान्यताओं के अनुसार आचार्यों द्वारा वर्णित होने से जैन पुराण प्रमाणभूत हैं। इसी लिए महा पुराण में ही वर्णित है कि जो पुराण का अर्थ है वही धर्म का अर्थ होता है । वस्तुतः पुराण को पाँच प्रकार का वर्णित किया है- क्षेत्र, काल, तीर्थ, सत्पुरुष और उनकी चेष्टाएँ।" जैन पुराणों में चार पुरुषार्थी - धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष - पर बल दिया गया है और उन्हीं के कथन एवं श्रवण का उपदेश दिया गया है ।" पुराण को पुण्य, मंगल, आयु, यशवर्धक, श्रेष्ठ और स्वर्गप्रदायक बताया गया है।" जैन पुराणों की पूजा से सुख, शान्ति, आरोग्य, मंगल की प्राप्ति और विघ्न विनाशक वर्णित है ।" जैन पुराणों के अनुशीलन से
१. हरिवंश १।७१-७२ तथा के० ऋषभ चन्द्र - वही, पृ० ७२-७३
२.
हीरालाल जैन - भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान, पृ० ८५-१२६
४.
महा १।२०४
स च धर्मः पुराणार्थः पुराणं पञ्चधाः विदुः ।
क्षेत्र कालश्च तीर्थं च सत्पुंसस्तद्विचेष्टितम् ॥ महा २।३८
१६
५.
महा ५४।७; पाण्डव १४१
६.
वही १।२०५
७. वही १।२०६
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