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________________ जैन पुराणों का सांस्कृतिक अध्ययन बुरे स्वप्न तथा अमंगल का नाश होकर अभीष्ट फल की प्राप्ति बतायी गयी है।' इसी लिए जैनाचार्यों ने जैन पुराणों के श्रवण एवं कथन पर विशेषतः बल दिया है । २ जिस प्रकार का विभाग एवं निर्धारित संख्या पारम्परिक पुराणों तथा उपपुराणों में प्राप्य है, वैसा जैन पुराणों में अप्राप्य है, परन्तु जो भी जैन पुराण साहित्य विद्यमान है, वह अपने ढंग का निराला एवं अनूठा है । जहाँ पुराणकार इतिवृत्त की यथार्थता को सुरक्षित नहीं रख सके हैं, वहाँ जैन पुराणकारों ने इतिवृत्त की यथार्थता को अधिक सुरक्षित रखा है । इसलिए आज के निष्पक्ष विद्वानों का यह स्पष्टतः मत है कि हमें प्राक्कालीन भारतीय परिस्थिति को जानने के लिए जैन पुराणों एवं उनके कथा ग्रन्थों से जो साहाह्य उपलब्ध है वह अन्य पुराणों से नहीं । इतिहास का संचित भण्डार जैन पुराणों में मिलता है । २० [च] प्रस्तुत अनुसंधान की पृष्ठभूमि एवं योजना : स्पष्ट है कि जैन पुराणों के प्रणयन का सूत्रपात साम्प्रदायिक आनन्द तथा आवश्यकताओं की प्रेरणा में हुआ था । ऊपर यह वर्णित है कि पुराण शब्द की जो व्याख्या पारम्परिक पुराण देते हैं लगभग वही व्याख्या जैन पुराणों में भी प्राप्य है । इस प्रकार जैन पुराणों की रचना की मौलिक प्रेरणा पारम्परिक पुराणों के लोकप्रियता एवं अत्यधिक प्रचलन के कारण मिली थी, किन्तु यह समानता मूल में दिखायी देती है । लेकिन विस्तार की दृष्टि से जैन पुराण अपने सम्प्रदाय के धार्मिक तथा दार्शनिक सिद्धान्तों को अपने ग्रन्थों में निःसूत किये हैं । पारम्परिक पुराणों का यह उद्देश्य था कि जटिल और दुरूह धार्मिक एवं दार्शनिक सिद्धान्तों को सरल भाषा एवं शैली द्वारा जनसाधारण में प्रचलित किया जाये । जैन पुराणों का भी यही उद्देश्य प्रदर्शित होता है । 'पुराण' शब्द का प्रयोग इन्होंने मात्र आकर्षण के लिए प्रयुक्त किया था - - ऐसा प्रतीत होता है । वस्तुतः इनके वर्णनों में जैन धर्म और दर्शन के दुरूह सिद्धान्त सरल शैली में पिरोये गये हैं । इनके कथानकों, वर्णनों एवं विवरणों में धार्मिक एवं दार्शनिक तत्त्वों के अतिरिक्त ऐसे अन्य सांस्कृतिक तत्त्व भी मिल जाते हैं, जिसके आधार पर तत्कालीन भारतीय जीवन की सांस्कृतिक रूपरेखा तैयार की जा सकती है । १. महा १।२०७ २. हरिवंश १७० ३. फूलचन्द्र - जैन पुराण साहित्य, श्रमण, १६५३ वर्ष ४, अंक ७-८, पृष्ठ ३६ तथा महा, प्रस्तावना, पृ० २० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001350
Book TitleJain Puranoka Sanskrutik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeviprasad Mishra
PublisherHindusthani Academy Ilahabad
Publication Year1988
Total Pages569
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Culture
File Size8 MB
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