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जैन पुराणों का सांस्कृतिक अध्ययन
जैन पुराणों की कथावस्तु रामायण, महाभारत तथा तिरसठशलाकापुरुषों के जीवन चरित के आधार पर निरूपित है । इसके अतिरिक्त अन्य धार्मिक पुरुषों के जीवन-चरित्र भी वर्णित हैं । जैन इतिहास द्वारा इन जीवन चरित्रों का आदि स्रोत जैन-परम्परा में ही ढूँढ़ने का प्रयास किया गया है । इनका उद्गम जैनागमों, भाष्यों और प्राचीन पुराणों में उपलब्ध है । चूँकि उक्त ग्रन्थों के पात्र जनसाधारण को मान्य थे, इसलिए इन कथाओं के माध्यम से जैनाचार्यों ने अपने धर्मोपदेश को सामान्य जन तक पहुँचाने का प्रयास किया है ।
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जैन पुराणों में कथारस गौण और धर्म-भाव प्रधान है । जैन विद्वानों इस बात पर बल दिया है कि कर्म प्रधान है और कर्मानुसार लोगों को उसका फल प्राप्त होता है । जैन पुराणों में जहाँ एक ओर मूल कथा मिलती है, वहीं दूसरी ओर कथाओं को आगे बढ़ाने एवं उपदेश को समझाने के लिये अवान्तर कथाओं का भी वर्णन मिलता है ।
इन पुराणों में सामान्यतः एक ही रचना - विन्यास मिलता है । चूँकि ये पुराण जनसाधारण को ध्यान में रखकर निर्मित किये गये थे इसलिये इनकी भाषा ऐसी है जिसको सभी पढ़ एवं समझ सकें । भाषा पूर्णतः सरल और प्रवाहमयी है । जैन पुराणों में पौराणिक तथा काव्यात्मक शैली का ऐसा सम्मिश्रण हो गया है जो कि पारम्परिक पुराणों में बहुत कम मिलता है । इन पुराणों में यह बात भी देखने को मिलती है कि इनमें अलौकिक तथा अप्राकृतिक तत्त्वों की प्रधानता नहीं है । जैन पुराणों में लोक, देश, नगर, राज्य, तीर्थ, दान, तप तथा - ये आठ पुराण के विषय हैं ? "
अन्वय ( सम्बन्ध )
आलोचित जैन पुराणों में अग्रांकित विशेषताएँ सामान्यतः सभी में मिलती हैं- प्रारम्भ में तीनों लोक, काल-चक्र तथा कुलकरों का प्रादुर्भाव वर्णित है । तदनन्तर जम्बूद्वीप और भरत क्षेत्र में वंश विस्तार करके वहाँ पर तीर्थों की स्थापना की गयी है । इसके बाद सम्बन्धित पुरुष का चरित्र-चित्रण किया गया है। जैन पुराणों में उनके पूर्व भवों का वर्णन उपलब्ध है । पूर्व-भव की कथाओं के अतिरिक्त प्रसंगानुसार अवान्तर कथाएँ और लोक कथाओं का भी चित्रण उपलभ्य है । जैन पुराणों में कथाओं के साथ जैनाचार्यों के उपदेश भी मिलते हैं, जो कि कहीं पर संक्षिप्त
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लोको देशः पुरं राज्यं तीर्थं दानतपोऽन्वयम् । पुराणेष्वष्टधाख्येयं
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गतयः फलमित्यपि ॥ महा ४ | ३
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