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________________ धार्मिक व्यवस्था ३६६ गये हैं, जो सर्वबाधा से परे हैं, जो अनन्त सुख से सम्पन्न हैं, अनन्त ज्ञान एवं दर्शन जिनकी आत्मा में प्रकाशमान हैं, तीनों प्रकार से शरीर को नष्ट करने वाले, निश्चय से स्वभाव में स्थिर एवं व्यवहार से लोक-शिखर में विराजमान हैं, जो पुनरागमन से रहित हैं और जिनका स्वरूप शब्दों द्वारा अकथनीय है, वे सिद्ध थे ।' घर से निकलकर दीक्षा ग्रहण करने के उपरान्त निरन्तर शास्त्र का अभ्यास करते हुए तपश्चरण के समय किसी प्रकार का आवरण न रखना, नियमित आवास में न रहना, कभी प्रमाद न करना, शास्त्रविहित कर्म का उल्लंघन न करना, परिग्रह न रखना, दीर्घावधि उपवास रखना, आभूषण रहित, कभी कषाय न करना, कोई प्रकार का आरम्भ न रखना, पाप न करना, गृहीत प्रतिज्ञाओं को खण्डित न करना, निर्ममत्व, अहंकार रहित, शठता रहित, जितेन्द्रिय, क्रोध रहित, अचंचल, निर्मल होकर क्रम-क्रम से केवल ज्ञानार्जन करते थे। आगे कथित है कि मुनियों में-संतोष, याचना का अभाव, परिग्रह का त्याग, अपने आपकी प्रधानता, पाणिपात्र (अपने हाथ) से आहार लेना, खड़े होकर भोजन करना, कायक्लेश को प्राप्त करना, अकिञ्चनता की प्रधानता, मोक्ष का साक्षात् कारण, दोष रहित, बलवान्, निर्विकार, उपद्रव रहित, दिगम्बर, स्नान न करना, एक वर्ष तक भोजन न ग्रहण करना, केश लुञ्चन करना, जितेन्द्रिय, गुप्तियों के रक्षक, सब की रक्षा करने वाले, महाव्रती, महान्, मोहरहित, इच्छा रहित, अभयदान देने वाले, सर्वहित करने वाले, सर्वहितकारी ज्ञान-दान देने में समर्थ, आहार दान देने वाले, संसार सागर से पार होने वाले, मोक्षमार्ग का उपदेश देने वाले, दोनों हाथ उत्तान करना-ये गुण पाये जाते हैं।' राग-द्वेष से रहित हृदय वाले मुनित्व को प्राप्त होते हैं । यही विचार उत्तराध्ययन सूत्र में भी उपलब्ध होता है कि पूर्वपरिचित संयोगों का परित्याग कर जो कहीं किसी वस्तु में स्नेह नहीं करता, स्नेह करने वालों के प्रति भी जो स्नेह नहीं दिखाता है, वह भिक्षु दोषों और प्रदोषों से मुक्त होता है। मुनियों के अन्य प्रकार के धर्मों में धैर्य धारण करना, क्षमा रखना, ध्यान धारण करने में निरन्तर तत्पर रहना और परीषहों के आने पर मार्ग से च्युत न १. पद्म १४१६८-६६ २. महा ६३।७३-७६ ३. वही २०१८६-६६ ४. पद्म ७८१२३ ५. उत्तराध्ययनसून ८।१-२ २४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001350
Book TitleJain Puranoka Sanskrutik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeviprasad Mishra
PublisherHindusthani Academy Ilahabad
Publication Year1988
Total Pages569
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Culture
File Size8 MB
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