SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 404
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन पुराणों का सांस्कृतिक अध्ययन होने का वर्णन महा पुराण में उपलब्ध है ।' नवीन कर्मों का अर्जन बन्द कर दिया और पहले के संचित कर्मों का तप के द्वारा नष्ट कर देना प्रारम्भ कर दिया । इस प्रकार संवर और निर्जरा के द्वारा वे केवलज्ञान को प्राप्त होते थे । २ सिद्धि-प्राप्त करने वालों की अनन्त सम्यक्त्व, अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्त अद्भुत वीर्य, सूक्ष्मत्व, अवगाहनत्व, अव्यावाधत्व एवं अगुरुलधुत्व-इन आठ सिद्ध-परमेष्ठी गुणों को ग्रहण करना चाहिए । इसी प्रकार द्रव्य क्षेत्र, काल और भाव का भी चिन्तन करना चाहिए । मुनि लोग अपने शरीर में राग नहीं रखते थे, परिग्रहण रहित, धीरवीर एवं सिंह के समान पराक्रमी होते थे। मोक्षाभिलाषी मुनियों को चाहिए कि इस शरीर को न तो केवल कृष ही करें और न ही रसीले एवं मधुर मनोवांछित भोजन से पुष्ट करें। निर्ग्रन्थ मुनियों से उत्पन्न वचन कभी अन्यथा नहीं होते।' मुनियों के लिए जैन धर्म में २८ मूलगुण तथा ८४ लाख उत्तर गुणों की व्यवस्था प्रदत्त है । २८ मूलगुण (१) अहिंसा, (२) सत्य, (३) अचौर्य, (४) ब्रह्मचर्य, (५) परिग्रह त्याग, (६) ईर्या समिति, (७) भाषा समिति, (क) एषणा, समिति, (६) आदान निक्षेप समिति, (१०) व्युत्सर्ग समिति, (११) सामायिक, (१२) चतुर्विंशतिस्तव, (१३) वन्दन, (१४) प्रतिक्रमण, (१५) स्वाध्याय, (१६) कायोत्सर्ग, (१७) स्पर्शेन्द्रिय विजय, (१८) रसनेन्द्रिय विजय, (१६) घ्राणेन्द्रिय विजय, (२०) क्षुरिन्द्रिय विजय, (२१) श्रोनेन्द्रिय विजय, (२२) आजानत्व, (२३) अदन्त धावन, (२४) भूमि शयन, (२५) नग्नत्व, (२६) केश लुंचन, (२७) एक भोजन तथा (२८) खड़े होकर भोजन करना है। इसके अतिरिक्त ८४ लाख उत्तरगुण हैं जिनमें मुनि आत्मज्ञान तथा तप द्वारा अपनी आध्यात्मिक शक्तियों का विकास करता है और कर्म क्षय करके अर्हन्त्य पद प्राप्त करता है। fiv] मुनि-धर्म (नियम) : मुनि ग्रीष्म ऋतु में पर्वत के शिखरों पर आरूढ़ होकर प्रचण्ड सूर्य किरण को सहते हुए आतापन योग करते थे। पर्वतों के अग्रभाग १. महा २०११६६ २. पद्म ६२२० ३. महा २०१२२३-२२४ ४. पद्म १४।१७१-१७२ ५. महा २०१५ ६. न हि निर्ग्रन्थसम्भूतं वचनं जायतेऽन्यथा । पद्म ७६१६१ ७. हेमचन्द्र कौंदेय-जैनाचार्य, चन्दाबाई अभिनन्दन ग्रन्थ, दिल्ली, १६५४, पृ० ३३० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001350
Book TitleJain Puranoka Sanskrutik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeviprasad Mishra
PublisherHindusthani Academy Ilahabad
Publication Year1988
Total Pages569
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Culture
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy