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________________ __ जैन पुराणों का सांस्कृतिक अध्ययन से विरक्ति के लिए निर्ग्रन्थ शब्द प्रयुक्त होता है.। जिनके जल में खींची गयी दण्ड की रेखा के समान कर्मों का उदय अव्यक्त-अप्रकट रहता है तथा जिन्हें एक मुहूर्त के बाद केवल ज्ञान प्राप्त (उत्पन्न) होने वाला है, उन्हें निर्ग्रन्थ संज्ञा से सम्बोधित करते थे। जो अपने शरीर में भी निःस्पृह हैं तथा कभी बाह्य विषयों में भी नहीं लुभाते और मुक्ति के लक्षण (चिह्न) स्वरूप दिगम्बर मुद्रा से विभूषित रहते थे उन्हें निर्ग्रन्थ नाम से सम्बोधित करते थे ।२ निर्ग्रन्थ मुनियों से उत्पन्न वचन कभी अन्यथा नहीं होते। याचना न करना, बिना दिये कुछ ग्रहण न करना, सरलता रखना; त्याग करना, किसी चीज की इच्छा न करना, क्रोधादि का त्याग करना, ज्ञानाभ्यास करना, ध्यान करना-ये दिगम्बर के नियम निर्धारित हैं। (५) स्नातक मुनि : जिनके घातिया कर्म नष्ट हो गये हैं, ऐसे केवली भगवान् को स्नातक नाम प्रदत्त किया गया था। fiii] मुनियों के कर्तव्य : मुनि लोग सूर्यास्त होने पर वहीं एक स्थान पर रुक जाते थे, एकान्त एवं पवित्र स्थान पर गाँव में एक दिन और नगर में पाँच दिन तक रहते थे, श्मशान या शून्य-गृह, वन्य जन्तुओं से युक्त जंगल, पर्वत की गुफा में निवास करते थे, पर्यङ्कासन, वीरासन या एक करवट से रात्रि व्यतीत करते थे, परिग्रह रहित, निर्ममत्व, निर्वस्त्र, विशुद्ध मोक्ष का ही मार्ग खोजते थे, त्रसकाय,वनस्पतिकाय, पृथ्वीकाय, जलकाय, वायुकाय एवं अग्निकाय इन छ: कार्यों की रक्षा करते थे, दीनता रहित, शान्त, परम उपेक्षा सहित, गुप्तियों के धारक एवं काम भोगों में कभी आश्चर्य नहीं करते थे, दूसरों द्वारा दिये गये विशुद्ध अन्न का भोजन कर-रूपी पात्र में ही करते थे, निषिद्ध आहार प्राण जाने पर भी नहीं लेते, घर का उल्लंघन न करके सरस या नीरस थोड़ा-सा आहार शरीर रक्षार्थ लेते थे, मुनियों की उत्कृष्ट भावना की प्रतीक्षा कर उसका अच्छी तरह निर्वाह करते थे। जिनके समस्त कर्म नष्ट हो १. अव्यक्तोदयकर्माणो ये पयोदण्ड राजिवत् । निर्ग्रन्थास्ते मुहूर्तेवोद्भिद्यमानात्मकेवलाः ॥ हरिवंश ६४।६३ २. पद्म ३५।११५; तुलनीय-औपपातिकसूत्र १४, पृ० ४६ ३. न हि निर्ग्रन्थसम्भूतं वचनं जायतेऽन्यथा । पद्म ७६।६१ ४. अयांचितमनदानमार्जवं त्यागमस्पहाम् । क्रोधादिहायनं ज्ञानाभ्यासं ध्यानं च सोऽन्वयात् ।। महा ६२।१५६ ५. प्रक्षीणघातिकर्माणः स्नातकाः केवलीश्वराः ॥ हरिवंश ६४।६४ ६. . महा ३४।१७४-२१८; पद्म १०६।१११-११६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001350
Book TitleJain Puranoka Sanskrutik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeviprasad Mishra
PublisherHindusthani Academy Ilahabad
Publication Year1988
Total Pages569
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Culture
File Size8 MB
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