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________________ ३५६ जैन पुराणों का सांस्कृतिक अध्ययन वह लोक स्रष्टा नहीं हो सकता है, क्योंकि लोक को मूर्तिक निर्मित कर सकता है जो कि शेष (बाकी) अधिष्ठान में राग-द्वेषादि विकार से युक्त होकर सक्रिय हो । यदि ईश्वर स्वभावतः निष्प्रयोजन लोक सृष्टि करता है तब उसकी यह कृति निरर्थक सिद्ध होगी । कर्मानुसार यदि ईश्वर जीवों का सृजन करता है, तब वह ईश्वर नहीं होगा, क्योंकि इस प्रकार के कृत्यों से जुलाहे की भांति वह परतंत्र हो जायेगा । यदि जीव के कर्मों के अनुसार सुख-दुःखादि स्वतः उत्पन्न होते रहते हैं तो ईश्वर निमित्त मात्र है, इस स्थिति में ईश्वर की पुष्टि करने का कोई तात्पर्य नहीं है । यदि सृष्टि के पूर्व जगत था तो स्वतः सिद्ध वस्तु के सृजन में ईश्वर ने क्यों व्यर्थ परिश्रम किया ? और यदि नहीं था तो आकाश कमल के समान सर्वथा असत् उसकी रचना कैसे हो सकती है ? यदि स्रष्टा ईश्वर मुक्त है तो वह राग-द्वेष से रहित होने के कारण जगत की सृष्टि नहीं करता और यदि वह संसारी है तो हम लोगों के समान ही उसका नामकरण ईश्वर न होगा, तब वह सृष्टि रचना किस प्रकार करेगा ? इस संसार में शरीर, इन्द्रियां, सुख-दुःखादि जितने भी पदार्थ दृष्टिगत होते हैं उन सब की उत्पत्ति चेतन आत्म से सम्बन्धित कर्मरूपी विधाता के द्वारा ही होती है । अतएव संसारी जीव के आंगोपांग में जो विचित्रता दृष्टिगोचर होती है वह सब निर्माण नामक कर्मरूपी विधाता की कुशलता से ही उत्पन्न होती है । ये संसारी जीव ही स्वकर्मोदय से प्रेरित होकर शरीर आदि संसार की सृष्टि करते हैं । कर्मरूपी ईश्वर के बोधक - विधि, स्रष्टा, विधाता, देव, पुराकृत कर्म और ईश्वर आदि-: द- शब्द पर्यायवाची हैं, इनके अतिरिक्त अन्य कोई लोक स्रष्टा नहीं है ईश्वरवादी व्यक्ति आकाश आदि की सृष्टि ईश्वर के कथन असंगत प्रतीत होता है हैं । इसलिए यह लोक काल आदि-अन्त से रहित है । " W 1 संसार की सब की भाँति ही बिना मानते हैं, तब उनका यह वस्तुएँ ईश्वर के द्वारा ही सृजित अकृत्रिम, अनादि, निधन तथा ५. कर्म सिद्धान्त : जैन ग्रन्थों में कर्म पर विशेष बल दिया गया है । इसी मूलाधार पर जैन दर्शन का विशाल प्रासाद निर्मित है । आलोचित जैन पुराणों में जो सामग्री उपलब्ध हुई है, उसका विवेचन निम्नवत् है : कि द्रव्य [i] कर्म का महत्त्व : भारतीय दर्शन में कर्म का स्थान अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । चार्वाक के अतिरिक्त प्रायः सभी वर्गों के दार्शनिक कर्म से प्रभावित रहे हैं । १. महा ४।१५ - ३६; पद्म ११।२१७-२५६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001350
Book TitleJain Puranoka Sanskrutik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeviprasad Mishra
PublisherHindusthani Academy Ilahabad
Publication Year1988
Total Pages569
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Culture
File Size8 MB
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