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________________ धार्मिक व्यवस्था ३५७ कर्म के प्रभाव के महत्ता को देखते हुए कतिपय पाश्चात्य विद्वानों ने त्रुटिपूर्ण मत प्रतिपादित किये हैं । मैकडानल के मतानुसार पुनर्जन्म और कर्म के संयुक्त सिद्धान्त व्यक्ति को निष्क्रिय और अपने आप में सीमित कर देता है । डॉ० कीथ के कथनानुसार कर्म एवं पुनर्जन्म का सिद्धान्त व्यक्ति को भाग्यवादी बनाता है । परन्तु उक्त दोनों मत अमान्य हैं । भारतीय विचारकों ने कर्म के साथ-साथ कर्त्तव्य के परिपालन को आवश्यक माना है । इसी लिए आलोचितपद्म पुराण में वर्णित है कि जो प्राणी जैसा कर्म करेगा, उसको वैसा ही फल भोगना पड़ेगा । उसके कर्म का फल उसे ही मिलेगा । २ पाण्डव पुराण में कर्म के महत्त्व पर बल देते हुए उपर्युक्त मत का समर्थन किया है ।" जैनेतर ग्रन्थों में भी कर्मानुसार फल का उल्लेख हुआ है । बौद्ध धर्म में भी कर्मानुसार फल प्राप्ति को समर्थित किया है । " [ii] कर्मबन्ध के कारण : मिथ्यात्व, अव्रताचरण ( अविरति ), प्रमाद, . कषाय एवं शुभाशुभ योग आदि ही जीवों के कर्मबन्ध के कारण हैं । मिथ्यात्व के पाँच, अविरति के एक सौ आठ, प्रमाद के पन्द्रह, कषाय के चार और योग के पन्द्रह भेद कथित हैं ।" [iii] कर्मों के भेद एवं स्वरूप : कर्मों को मूल और उत्तरभेद में विभाजित किया जा सकता है - कर्मों के मूल के आठ भेद हैं और उत्तर भेद एक सौ आठ।" जैन आगमों और जैन पुराणों में आठ प्रकार के कर्मों का उल्लेख उपलब्ध है -- ( १ ) ज्ञानावरण, (२) दर्शनावरण, (३) वेदनीय, (४) मोहनीय, (५) आयु, (६) नाम, (७) गोत और ( 5 ) अन्तराय । इनमें से ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय एवं अन्तराय कर्म घातिकर्म हैं और शेष अघातिकर्म । घातिकर्म के विनष्ट होने पर केवलज्ञान और अघातिकर्म के विनाश पर मोक्ष की प्राप्ति होती है । ' लक्ष्मी दत्त ठाकुर - प्रमुख स्मृतियों का अध्ययन, लखनऊ, १६६५, पृ० ५६ पद्म ६६।५; तुलनीय - सूत्रकृतांग १२ (१) । ४; उत्तराध्ययन ४।३, ३३।२५ पाण्डव ७।२१८-२२४; दशाश्रुतस्कन्ध ५११४-१५ मनु ४ । १७३; गीता २।४७, ३।२०, ४-२०, १८१६; गीता रहस्य, पृ० २८५-२८६ कमलाकान्त मिश्र - जातक माला : एक अध्ययन, इलाहाबाद, १६७७, पृ० १४६ ६. महा ४७।३०६-३११ ७. वही ४७।३११, १७।२२; हरिवंश ५८ ।१६२ - २०१ ८. पद्म १२२।७१, १०५।१७७; हरिवंश १८ । ३१ ५८।२१५ - २१८; तुलनीय - तत्त्वार्थ सूत्र ८४ उत्तराध्ययन ३३।२-३ १. २. ३. ४. ५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001350
Book TitleJain Puranoka Sanskrutik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeviprasad Mishra
PublisherHindusthani Academy Ilahabad
Publication Year1988
Total Pages569
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Culture
File Size8 MB
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