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________________ धार्मिक व्यवस्था ३५५ . ४. ईश्वर : जैनी दृष्टिकोण : महा पुराण में ईश्वर बोधक पर्यायवाची शब्द उपलब्ध होते हैं-विधि, स्रष्टा विधाता, देव, पुराकृत कर्म, परमात्मा तथा ईश्वर । ईश्वर के अस्तित्व को जैनी स्वीकार नहीं करते हैं। जैन पुराणों में ईश्वर के जगतकत्र्तृत्व को मान्यता . उपलब्ध नहीं हुई है । जीवादि पदार्थों को अवगाहप्रद यह लोक अकृत्रिम, स्वतः निर्मित, नित्य, प्रलय रहित और अनन्त आकाश के मध्य स्थित है। लोगों की इस आशंका-'इस लोक का निर्माता कोई न कोई अवश्य है' का समाधान जैन पुराणों में युक्तियों सहित प्रदत्त है। प्रथम, लोककर्ता को स्वीकार करने पर यह विचारणीय होगा कि सृष्टि के पूर्व वह कर्ता (ईश्वर) सृष्टि के बाहर कहाँ निवास करता था ? किस जगह बैठकर वह लोक का सृजन करता था ? यदि यह कहा जाये कि वह आधार रहित और नित्य है, तब उसने इस सृष्टि का निर्माण कैसे किया और निर्मित कर कहाँ स्थान प्रदान किया ? द्वितीय, ईश्वर को निश्शरीर मानने पर वह स्रष्टा नहीं हो सकता, क्योंकि एक ईश्वर भिन्न-भिन्न संसारों की रचना किस प्रकार कर सकता है। शरीर रहित (अमूर्त) ईश्वर से मूर्त वस्तुओं का निर्माण कैसे हो सकता है ? क्योंकि लोक में प्रत्यक्ष द्रष्टव्य है कि मूर्तिक कुम्हार से ही मूर्तिक घटक की रचना होती है। तृतीय, जब संसार में समस्त पदार्थ कारण-सामग्री के बिना निर्मित नहीं किये जा सकते, तब ईश्वर उसके बिना ही लोक की रचना किस प्रकार कर सकेगा ? यदि यह अनुमान कर लिया जाय कि प्रथमतः वह कारण-सामग्री का सृजन कर लेता है, तदनन्तर लोक सृष्टि करता है, तो यह भी समुचित प्रतीत नहीं होता है, क्योंकि इसमें अनवस्था-दोष उत्पन्न हो जाता है। यदि कारण-सामग्री स्वतः निर्मित हो जाती है, तब यह भी स्वयं सिद्ध है, उसका सृजन किसी ने नहीं किया है। यदि ईश्वर स्वतः सिद्ध है, तब लोक भी स्वयं सिद्ध है। यदि यह स्वीकार कर लिया जाय कि ईश्वर सामग्री के बिना मात्र इच्छा शक्ति से लोक सृष्टि करता है तब यह युक्ति शून्य है । यदि ईश्वर कृतकृत्य है (सब काम पूर्ण कर चुका है), तो उसे सृष्टि रचना की इच्छा ही क्यों होगी? यदि वह अकृतकृत्य है तो वह लोक निर्माण में समर्थ नहीं हो सकता, जैसे अकृतकृत्य कुम्हार लोक सृजन नहीं कर सकता । ईश्वर को अमूर्तिक, निष्क्रिय, व्यापी और विकाररहित स्वीकार करने पर १. विधिः स्रष्टा विधाता च देवं कर्मपुराकृतम्। __ईश्वरश्चेति पर्याया विजेयाः कर्मवेधसः ॥ महा ४।३७ ।। २. भगवान् के चार अनन्त चतुष्ट्य, ३४ अतिशय तथा आठ प्रातिहार्य ये ४६ गुण हैं । द्रष्टव्य-जितेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग १, पृ० १४१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org .
SR No.001350
Book TitleJain Puranoka Sanskrutik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDeviprasad Mishra
PublisherHindusthani Academy Ilahabad
Publication Year1988
Total Pages569
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Culture
File Size8 MB
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