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ललित कला
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लाषा थी। यह १२वीं शती के पूर्व ही शिथिल पड़ गयी थी और मुगल शैली के विकास के कारण इसका अस्तित्व ही प्रायः समाप्त हो गया था। किन्तु पूर्व कथित शताब्दी के उपरान्त पुनरुज्जीवित होकर महमूद गजनवी के विध्वंसों के उपरान्त जैन चित्रकला आबू तथा गिरनार के केन्द्रों में अपने परिवेश के नव निर्माण में अग्रसर थी। जैन चित्रकला गुजरात की श्वेताम्बर कलम से आरम्भ होकर राजपूताना में वर्षों तक अपना विकास करती हुई बाद में ईरानी प्रभावों से मुक्त होकर 'राजपूत कलम' में ही विलयित हो गयी। आनन्द कुमार स्वामी के मतानुसार सर्वाधिक प्राचीन जैन चित्रकला ताड़ की पत्ती पर प्राप्त हुई है, जिसकी तिथि १२३७ ई० निर्धारित की जा सकती है ।२ परन्तु यह मत अमान्य है। डॉ० उमाकान्त प्रेमानन्द शाह तथा मोती चन्द्र जैन ने प्रारम्भिक जैन चित्रकला का दृष्टान्त उदयगिरि और खण्डगिरि की गुफाओं में ई० पू० प्रथम शती की चित्रकारी को माना है।
३. चित्र निर्माण के उपकरण : कालिदास ने अपने ग्रन्थों में चित्र निर्माण के उपकरणों में इलाका, वर्तिका, तूलिका, लम्ब-कूच, चित्रफलक, वर्ण, राग और वातिकाकरण्डक का प्रयोग किया है। आलोच्य पुराणों में उक्त सभी सामग्रियों का उल्लेख सम्यक रूप से उपलब्ध नहीं होता है, परन्तु महा पुराण में प्रधानतः तीन वस्तुएँ-तूलिका, पट्ट तथा रंग-का वर्णन प्राप्त होता है।" चित्रकार अपनी तूलिका या लेखनी से रेखांकन के पश्चात् ही रंग भरता था तथा नवरस सम्बन्धी भावों को वह अपनी चित्रकला में साकार रूप प्रदान करता था। चित्रकार की विशेषता थी कि वह चित्र की लम्बाई-चौड़ाई का यथार्थ ज्ञान रखता था। उक्त पुराण में अन्य स्थल पर उल्लेख आया है कि चित्रकार रंगों के सम्मिश्रण में पटु होता था। इन १. वाचस्पति गैरोला-वही, पृ० १३८ २. आनन्द कुमार स्वामी-इण्ट्रोडक्शन टू इण्डियन आर्ट, दिल्ली, १६६६,
पृ० ७१ ३. उमाकान्त प्रेमानन्द शाह--स्टडीज़ इन् जैन आर्ट, पृ० २७; मोती चन्द्र जैन
'मिनियेचर प्रिंटिंग फाम वेस्टर्न इण्डिया, पृ० १० ४. भगवत शरण उपाध्याय-कालिदास का भारत, भाग २, पृ० ३५ ५. महा ७।१५५ ६. वही ७।१२० ७. वही ७११६ ८. वही ७१११८
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